राम ! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है ।
बड़ेकी बड़ाई , छोटेकी छोटाई दूरि करै ,
ऐसी बिरुदावली , बलि , बेद मनियत है ॥१॥
गीधको कियो सराध , भीलनीको खायो फल ,
सोऊ साधु - सभा भलीभाँति भनियत है ।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत ,
जोग ग्यान हूँ तें गरु गनियत है ॥२॥
प्रभुकी कृपा कृपालु ! कठिन कलि हूँ काल ,
महिमा समुझि उर अनियत है ।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस ,
दीनबंधु ! द्वारे हठ ठनियत है ॥३॥
भावार्थः - हे श्रीरामजी ! प्रीतिकी रीति आप ही भलीभाँति जानते हैं । बलिहारी ! वेद आपकी विरदावलीको इस प्रकार मान रहे हैं कि आप बड़ेका बड़प्पन ( अभिमान ) एवं छोटेकी छोटाई ( दीनता ) - को दूर कर देते हैं ॥१॥
आपने जटायु गीधका श्राद्ध किया और शबरीके फल ( बेर ) खाये ; यह बात भी संत - समाजमें अच्छी तरह बखानी जाती है कि जिस किसीका आपने आदर किया , लोक और वेद दोनों ही उसका आदर करते हैं । आपका प्रेम योग तथा ज्ञानसे भी बड़ा माना जाता है ॥२॥
हे कृपालु ! आपकी कृपासे इस कठिन कलिकालमें भी आपकी महिमाको समझकर भक्तजन हदयमें धारण करते हैं । यद्यपि तुलसी दूसरोंके ( विषयोंके ) अधीन होनेके कारण ( आपके प्रेमसे ) अनरस अर्थात् प्रेमहीन हो रहा है , तथापि हे दीनबन्धु ! वह आपके द्वारपर धरना दिये बैठा है ( आपकी कृपा - दृष्टि पाये बिना हटनेका नहीं ) ॥३॥