ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥१॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥२॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच - सहित हरि दीन्हीं ॥३॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ भजु राम , काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो ॥४॥
भावार्थः - संसारमें ऐसा कौन उदार है , जो बिना ही सेवा किये दीन - दुःखियोंपर ( उन्हें देखते ही ) द्रवित हो जाता हो ? ऐसे एक श्रीरामचन्द्र ही हैं , उनके समान दूसरा कोई नहीं ॥१॥
बड़े - बड़े ज्ञानी मुनि योग , वैराग्य आदि अनेक साधन करके भी जिस परम गतिको नहीं पाते , वह गति प्रभु रघुनाथजीने गीध और शबरीतकको दे दी ओर उसको उन्होंने अपने मनमें कुछ बहुत नहीं समझा ॥२॥
जिस सम्पत्तिको रावणने शिवजीको अपने दसों सिर चढ़ाकर प्राप्त किया था ; वही सम्पत्ति श्रीरामजीने बड़े ही संकोचके साथ विभीषणको दे डाली ॥३॥
तुलसीदास कहते हैं कि अरे मेरे मन , जो तू सब तरहसे सब सुख चाहता है , तो श्रीरामजीका भजन कर । कृपानिधान प्रभु तेरी सारी कामनाएँ पूरी कर देंगे ॥४॥