मैं हरि, साधन करइ न जानी ।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥१॥
सपने नृप कहँ घटै बिप्र - बध, बिकल फिरै अघ लागे ।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥२॥
स्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥३॥
निज भ्रम ते रबिकर - सम्भव सागर अति भय उपजावै ।
अवगाहत बोहित नौका चढ़ि कबहूँ पार न पावै ॥४॥
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई ।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥५॥
भावार्थः- हे हरे ! मैंने ( अज्ञानके नाशके लिये ) साधन करना नहीं जाना । जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की । इसमें इलाजका क्या दोष हैं ? ॥१॥
जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ - तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेधयज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता ॥२॥
जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह ( मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक ) अनेक हथियारोंके द्वारा बलसे मारते - मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना बाहरी साधनोंसे नष्ट नहीं होता ॥३॥
जैसे अपने ही भ्रमसे सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न हुआ ( मृगतृष्णाका ) समुद्र बड़ा ही भयावना लगता है और उस ( मिथ्यासागर ) - में डूबा हुआ मनुष्य बाहरी जहाज या नावपर चढ़नेसे पार नहीं पा सकता ( यही हाल इस अज्ञानसे उत्पन्न संसार - सागरका है ) ॥४॥
तुलसीदास कहते हैं, जबतक ' मैं ' - पनसहित संसारका निर्मूल नाश नहीं होगा, तबतक हे भाइयो ! करोड़ों यत्न कर - करके मर भले ही जाओ, पर इस संसार - सागरसे पार नहीं पा सकोगे ॥५॥