दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई ।
सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥१॥
कबहुँ जोगरत, भोग - निरत सठ हठ बियोग - बस होई ।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥२॥
कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी ।
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥३॥
कबहुँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै ।
संसृति - संनिपात दारुन दुख बिनु हरि - कृपा न नासै ॥४॥
संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज - समुदाई ।
तुलसिदास भव - रोग रामपद - प्रेम - हीन नहिं जाई ॥५॥
भावार्थः-- हे परम दयालु श्रीरघुनाथजी ! आप दीनोंके बन्धु, सुखके समुद्र और कृपाकी खानि हैं । हे नाथ ! सुनिये, मेरा मन संसारके त्रिविध तापोंसे जल रहा है अथवा उसे ( काम - क्रोध - लोभरुपी ) त्रिदोष ज्वर हो गया है और इसीसे वह पागलकी तरह बकता फिरता है ॥१॥
कभी वह योगाभ्यास करता है तो कभी वह दुष्ट भोगोंमें फँस जाता है । कभी हठपूर्वक वियोगके वश हो जाता है तो कभी मोहके वश होकर नाना प्रकारके द्रोह करता है और वही किसी समय बड़ी दया करने लगता है ॥२॥
कभी दीन, बुद्धिहीन, बड़ा ही कंगाल बन जाता है, तो कभी घमण्डी राजा बन जाता है । कभी मूर्ख बनता है, तो कभी पण्डित बन जाता है ॥३॥
हे देव ! कभी उसे सारा जगत् धनमय दीखता है, कभी शत्रुमय और कभी स्त्रीमय दीखता है अर्थात् वह कभी लोभमें, कभी क्रोधमें और कभी काममें फँसा रहता है । यह संसाररुपी सन्निपात - ज्वरका दारुण दुःख बिना भगवत - कृपाके कभी नष्ट नहीं हो सकता ॥४॥
यद्यपि संयम, जप, तप, नियम, धर्म, व्रत आदि अनेक ओषधियाँ हैं, परन्तु तुलसीदासका संसाररुपी रोग श्रीरामजीके चरणोंके प्रेम बिना दुर नहीं हो सकता ॥५॥