देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे ।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह - जिन्ह कर जोरे ॥१॥
सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे ।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥२॥
गाँव बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे ।
अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे ॥३॥
बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे ।
तुलसी दलि, रुँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ॥४॥
भावार्थः-- हे शंकर ! आप बड़े देव हैं, बड़े दानी है और बड़े भोले हैं । जिन - जिन लोगोंने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बिना भेद - भावके उन सब भोगोंके दुःख दूर कर दिये ॥१॥
आपकी सेवा, स्मरण और पूजनमें तो थोड़ेसे बेलपत्र और चावलोंसे ही काम चल जाता है, परंतु इनके बदलेमें आप हाथी, रथ, घोड़े और जगतमें जितने सुखके पदार्थ हैं, सो सभी दे डालते हैं ॥२॥
हे वामदेव ! मैं आपके गाँव ( काशी ) - में रहता हूँ, मैंने कभी आपसे कुछ माँगा नहीं, अब आधिभौतिक कष्टके रुपमें ये आपके किंकरगण मुझे सताने लगे हैं ॥३॥
इसलिये आप इन कठोर कर्म करनेवालोंको जल्दी बुलाकर डाँट दीजिये, मैं आपकी बलैया लेता हूँ, क्योंकि ये दुष्ट तुलसीदासरुपी तुलसीके पेड़की कुचलकर उसकी जगह शाखोट ( सहोर ) - के पेड़ लगाना चाहते हैं ॥४॥