मैं हरि पतित - पावन सुने ।
मैं पतित तुम पतित - पावन दोउ बानक बने ॥१॥
ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने ।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥२॥
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने ।
दासतुलसी सरन आयो , राखिये आपने ॥३॥
भावार्थः - हे हरे ! मैंने तुम्हें पतितोंको पवित्र करनेवाला सुना हैं । सो मैं तो पतित हूँ और तुम पतितपावन हो ; बस दोनोंके बानक बन गये , दोनोंको मेल मिल गया । ( अब मेरे पावन होनेमें क्या सन्देह है ? ) ॥१॥
वेद साक्षी दे रहे हैं कि तुमने व्याध ( वाल्मीकि ), गणिका ( पिंगला वेश्या ), गजेन्द्र और अजामिलको तथा और भी अनेक नीचोंको संसार - सागरसे पार कर दिया है , जिनकी गिनती ही किससे हो सकती है ? ॥२॥
जिन्होंने जानकर या बिना जाने तुम्हारा नाम ले लिया , उन्हें नरक और स्वर्गमें जानेकी मनाई कर दी गयी है । अर्थात् वे भवसागरसे पार होकर मुक्त हो जाते हैं ( यह सब समझ - बूजकर ही अब ) तुलसी भी तुम्हारी शरणमें आया है , इसे भी अपना लो ॥३॥