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विनयावली ११४

विनय पत्रिका - विनयावली ११४

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राम - नामके जपे जाइ जियकी जरनि ।

कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये ,

जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥१॥

करम - कलाप परिताप पाप - साने सब ,

ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि ।

दंभ , लोभ , लालच , उपासना बिनासि नीके ,

सुगति साधन भई उदर भरनि ॥२॥

जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग - ग्यान ,

बचन बिशेष बेष , कहूँ न करनि ।

कपट कुपथ कोटि , कहनि - रहनि खोटि ,

सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥३॥

मरत महेस उपदेस हैं कहा करत ,

सुरसरि - तीर कासी धरम - धरनि ।

राम - नामको प्रताप हर कहैं , जपैं आप ,

जुग जुग जानैं जग , बेदहूँ बरनि ॥४॥

मति राम - नाम ही सों , रति राम - नाम ही सों ,

गति राम - नाम ही की बिपति - हरनि ।

राम - नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक ,

तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥५॥

भावार्थः - श्रीराम - नाम जपनेसे ही मनकी जलन मिट जाती है । इस कलियुगमें ( योग - यज्ञादि ) दूसरे साधन तो सब वैसे ही व्यर्थ हो गये हैं , जैसे अँधेरा दूर करनेके लिये चित्रलिखित सूर्य व्यर्थ है ॥१॥

कर्म तो बहुतेरे दुःख और पापोंमें सने हैं । कर्मोंका करना इस समय ऐसा है , जैसे किसी वृक्षमें बड़े ही सुन्दर फूल फूलें , पर फल लगे ही नहीं । दम्भ , लोभ और लालचने उपासनाका भलीभाँति नाश कर दिया है । और मोक्षका साधन ज्ञान आज पेट भरनेका साधन हो रहा है । ( इस प्रकार कर्म , उपासना और ज्ञान तीनोंकी ही बुरी दशा है ॥२॥

न तो योग ही बनता है , न समाधि ही उपाधिरहित है , वैराग्य और ज्ञान लंबी - चौड़ी बातें बनाने और वेष बनानेभरके ही रह गये हैं । करनी कुछ भी नहीं , केवल कथनी है । कपटभरे करोड़ों कुमार्ग चल पड़े हैं । कहनी और रहनी सभी खोटी हो गयी हैं । सभी अपने - अपने आचरणोंकी सराहना करते हैं ॥३॥

( एक राम - नामकी महिमा रही है ) शिवजी गंगाके किनारे काशीकी धर्मभूमिपर मरते समय जीवको क्या उपदेश देते हैं ? ह्वे श्रीराम - नामके प्रतापका वर्णन करते हैं । दूसरोंसे कहते हैं और स्वयं भी जपते हैं । अनेक युगोंसे इसे संसार जानता है और वेद भी कहते चले आये हैं ॥४॥

अब तो राम - नामहीमें अपनी बुद्धिको लगाना चाहिये , राम - नामहीसे प्रेम करना चाहिये और राम - नामहीकी शरण लेनी चाहिये । क्योंकि एक यही साधना जीवकी जन्म - मरणरुप विपत्तियोंको दूर करनेवाली हैं । हे तुलसी ! राम - नामपर विश्वास और दृढ़् प्रेम बनाये रखेगा , तो कभी - न - कभी श्रीरामजी अवश्य ही अपने दयालु स्वभावसे तुझपर दया करेंगे ॥५॥

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Last Updated : November 11, 2010

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