लोक - बेद हूँ बिदित बात सुनि - समुझि
मोह - मोहित बिकल मति थिति न लहति ।
छोटे - बड़े , खोटे - खरे , मोटेऊ दूबरे ,
राम ! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥१॥
होती जो आपने बस , रहती एक ही रस ,
दूनी न हरष - सोक - साँसति सहति ।
चहतो जो जोई जोई , लहतो सो सोई सोई ,
केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति ॥२॥
करम , काल , सुभाउ गुन - दोष जीव जग मायाते ,
सो सभै भौंह चकित चहति ।
ईसनि - दिगीसनि , जोगीसनि , मुनीसुनी हू ,
छोड़ति छोड़ाये तें , गहाये तें गहति ॥३॥
सतरंजको सो राज , काठको सबै समाज ,
महाराज बाजी रची , प्रथम न हति ।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो - जीतिबो नाथ !
बहु बेष , बहु मुख सारदा कहति ॥४॥
भावार्थः - छोटे - बड़े , बुरे - भले , मोटे और दुबले , इन सबकी , हे श्रीरामजी ! आपके ही निभानेसे निभती है - यह बात संसार और वेदोंमें प्रकट है । किन्तु इसे सुनकर और विचारकर भी मेरी मोहके वश हुई बुद्धि ऐसी व्याकुल हो रही है कि वह कभी स्थिर ( निश्चयात्मिका ) नही होती ॥१॥
जो यह मेरे वशमें होती तो सदा एकरस ( निश्चयात्मिका ) ही रहती ( क्योंकि जीवात्मा नित्य परमात्मसुख ही चाहता है ), फिर यह संसारके हर्ष , शोक और संकटोंको क्यों सहती ? ( बुद्धि ईश्वरमुखी निश्चयात्मिका होनेपर ) जो जिस वस्तुकी इच्छा करता , वही उसे मिल जाती । किसीकी कोई भी लालसा बाकी न रहती ( परमात्माको प्राप्तकर जीव पूर्णकाम हो जाता ) ॥२॥
किन्तु ऐसा है नहीं । जगतमें जीवके कर्म , काल , स्वभाव , गुण , दोष - ये सब आपकी मायासे हैं और वह माया मारे डरके भौंचक्की - सी होकर आपकी भृकुटिकी ओर ताकती रहती है ( आपके नचाये नाचती है ) । यह माया शिव , ब्रह्मा और दिकपालोंको , योगीश्वरों और मुनीश्वरोंको आपके ही छुड़ानेसे छोड़ती है और आपके ही पकड़ानेसे पकड़ लेती है ॥३॥
इस मायाका सारा समाज शतरंजका - सा राज्य है ( असत है ), सब काठका बना है ( असलमें न कोई राजा है , न वजीर ) । हे महाराज ! शतरंजकी यह बाजी आपहीकी रची हुई है , यह पहले नहीं थी । तुलसीदास कहते हैं कि हे प्रभो ! इस बाजीकी हारजीत आपहीके हाथमें है ! यह बात सरस्वतीने अनेक वेष धारण कर बहुतसे मुखोंसे कही है ( सभी विद्वानोंकी वाणीसे यही निकला है कि बन्धनमोक्ष सब श्रीभगवानके ही हाथ है ) ॥४॥