द्वार हौं भोर ही को आजु ।
रटत रिरिहा आरि और न , कौर ही तें काजु ॥१॥
कलि कराल दुकाल दारुन , सब कुभाँति कुसाजु ।
नीच जन , मन ऊँच , जैसी कोढ़मेंकी खाजु ॥२॥
हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु - समाजु ।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ , तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥३॥
दीनता - दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु ।
दानि दसरथरायके , तू बानइत सिरताजु ॥४॥
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु ।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति - सुधा सुनाजु ॥५॥
भावार्थः - हे भगवन् ! आज सबेरेसे ही मैं आपके दरवाजेपर अड़ा बैठा हूँ । रें - रें करके रट रहा हूँ , गिड़गिड़ाकर माँग रहा हूँ , मुझे और कुछ नहीं चाहिये । बस , एक कौर टुकड़ेसे ही काम बन जायगा । ( जरा - सी कृपा - दृष्टिसे ही मैं पूर्णकाम हो जाऊँगा ) ॥१॥
( यदि आप यह कहें कि कोई उद्यम क्यों नहीं करता ? गिड़गिड़ाकर भीख क्यों माँगता है , तो इसका उत्तर यही है कि ) इस भयंकर कलियुगमें ( उत्तम साधनरुपी उद्यमका ) बड़ा ही दारुण दुर्भिक्ष पड़ गया है , जितने उद्यम और उपाय - साधन हैं , सभी बुरे हैं । कोई - सा भी निर्विघ्न पूरा नहीं होता , इससे आपसे भीख माँगना ही मैंने उचित समझा है । ( कलियुगी ) मनुष्योंकी करतूत तो नीच है ( दिन - रात विषयोंके लिये ही पापमें रत रहते हैं ) और उनका मन ऊँचा है ( चाहते हैं सच्चा सुख मिले , परन्तु सच्चा मोक्षरुप सुख बिना सुख मिलता है , पर पीछे मवाद निकलनेपर जलन पैदा हो जाती है उसीके समान इन्द्रियोंके साथ विषयका संयोग होनेपर आरम्भमें तो सुख भासता है , परन्तु परिणाममें महादुःख होता है । इसलिये विषय केवल दुःखदायी ही है , इसी बातको समझकर मैंने किसी भी उद्यममें मन नहीं लगाया ) ॥२॥
मैंने हदयमें डरकर कृपालु संत - समाजसे पूछा कि कहिये , मुझ - सरीखे ( उद्यमहीनको ) भी कोई शरणमें लेगा ? संतोनें ( एक स्वरसे ) यही उत्तर दिया कि एक कोसलपति महाराज श्रीरामचन्द्रजी ही ( ऐसोंको शरणमें ) रख सकते हैं ॥३॥
हे कृपाके समुद्र ! आपको छोड़कर दीनता और दरिद्रताका नाश कौन कर सकता है ? हे दशरथनन्दन ! दानियोंका बाना रखनेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं ॥४॥
हे गरीबनिवाज ! मैं जन्मका भूखा गरीब भिखमंगा हूँ । बस , अब इस तुलसीको भक्तिरुपी अमृतके समान सुन्दर भोजन पेटभर खिला दीजिये ( अपने चरणोंमें ऐसी भक्ति दे दीजिये कि फिर दूसरी कोई कामना ही न रह जाय ) ॥५॥