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विनयावली १६०

विनय पत्रिका - विनयावली १६०

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


और मोहि को है , काहि कहिहौं ?

रंक - राज ज्यों मनको मनोरथ , केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥१॥

जम - जातना , जोनि - संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं ।

मोको अगम , सुगम तुमको प्रभु , तउ फल चारि न चहिहौं ॥२॥

खेलिबेको खग - मृग , तरु - कंकर ह्वै रावरो राम हौं रहिहौं ।

यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥३॥

इतनी जिय लालसा दासके , कहत पानही गहिहौं ।

दीजै बचन कि हदय आनिये ' तुलसीको पन निर्बहिहौं ॥४॥

भावार्थः - हे नाथ ! मेरे दूसरा कौन है , मैं ( अपने मनकी बात तुम्हें छोड़कर ) और किससे कहूँगा ? मेरे मनकी कामना रंकके राजा होने - जैसी है , ( हूँ तो मैं निपट साधनहीन , पर चाहता हूँ मोक्षसे भी परेका परमात्मप्रेमसुख । इस स्थितिमें तुम - सरीखे दयालुकी छोड़कर अपना ) वह मनोरथ किसे सुनाकर सुख प्राप्त करुँ ? ( दूसरा कौन मेरी बात सुनकर पूरी करेगा ? ) ॥१॥

यम - यातना अर्थात् नारकीय क्लेश एवं अनेक योनियोंमें दारुण दुःख सहे हैं और सहूँगा । ( मुझे इसकी कुछ भी परवा नहीं है ) हे प्रभो ! मुझे अर्थ , धर्म , काम और मोक्षकी भी लालसा नहीं है ; यद्यपि मेरे लिये ये दुर्लभ हैं , पर तुम चाहो तो इनको सहजमें ही दे सकते हो ॥२॥

हे रामजी ! ( मेरी मनोकामना तो कुछ दूसरी ही है ) मैं तो तुम्हारे हाथके खिलौनेके रुपमें पक्षी , पशु , वृक्ष और कंकर - पत्थर होकर ही रहना चाहता हूँ । इस नातेसे मुझे ( घोर ) नरकमें भी सुख है और इसके बिना मैं मोक्ष प्राप्त करनेपर भी दुःखसे जलता रहूँगा ( मोक्ष नहीं चाहिये ; रखो चाहे चेतन हो या जड़ पेड़ पत्थर हो , मुझे उसीमें परम सुख है ) ॥३॥

इस दासके मनमें बस एक यही कामना है कि यह सदा तुम्हारी जूती पकड़े रहे ( शरणमें पड़ा रहे ) । या तो मुझे वचन दे दो ( कि हम तेरी यह कामना पुरी कर देंगे ) अथवा इस बातको मनमें निश्चय कर लो कि हम तुलसीका यह प्रण निबाह देंगे ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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