काहे ते हरि मोहिं बिसारो ।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो ॥१॥
पतित - पुनीत, दीनहित, असरन - सरन कहत श्रुति चारो ।
हौं नहिं अधम, सभीत, दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥२॥
खग - गनिका - गज - व्याध - पाँति जहँ तहँ हौंहूँ बैठारो ।
अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥३॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो ।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥४॥
मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो ।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥५॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो ।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥६॥
भावार्थः-- हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया ? हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनोंकी ही जानते हैं, तो भी मुझे क्यों नहीं सँभालते ॥१॥
आप पतितोंको पवित्र करनेवाले, दीनोंके हितकारी और अशरणको शरण देनेवाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं । तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ ? अथवा क्या वेदोंकी यह घोषणा ही झूठी है ? ॥२।
( पहले तो ) मुझे आपने पक्षी ( जटायु गृध्र ), गणिका ( जीवन्ती ), हाथी और व्याध ( वाल्मीकि ) की पंक्तिमें बैठा लिया । यानी पापी स्वीकार कर लिया अब हे कृपानिधान ! आप कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आपण आज्ञा न मानता होता, तो हे हरे ! हम आपका भरोसा और गुणगान छोड़कर तथा उसपर क्रोध करने और दोष लगानेका झंझट त्याग कर उसीका भजन करते ॥४॥
( परन्तु ) आप तो मामूली मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरके समान बना सकते हैं, ऐसा आपका प्रताप है । यह सामर्थ्य होते हुए भी आप मुझे त्याग रहे हैं, तब हे नाथ ! मेरा फीर वश ही क्या है ? ॥५॥
यद्य पि मैं सब प्रकारसे हार चुका हूँ और मुझे नरकमें गिरनेका भी भय नहीं है, परन्तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बड़ा दुःख है कि प्रभुके नामने भी मेरे पापोंको भस्म नहीं किया ॥६॥