जौ निज मन परिहरै बिकारा ।
तौ कत द्वैत - जनित संसृति - दुख, संसय, सोक अपारा ॥१॥
सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआईं ।
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं ॥२॥
असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे ।
सरग, नरक, चर - अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥३॥
बिटप - मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये ।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥४॥
रघुपति - भगति - बारि - छालित - चित, बिनु प्रयास ही सूझै ।
तुलसिदास कह चिद - बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥५॥
भावार्थः- यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो ? ( यह सब मनके विकारोंके कारण ही तो होते हैं ) ॥१॥
शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनने ही हठसे कल्पना कर रखी है । शत्रुको साँपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये । ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं ॥२॥
जैसे ( बहुमूल्य ) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही स्वर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत - से लोक इस मनमें रहते हैं । भाव यह कि छोटी - सी मणिके मोलसे जो चाहे सो खाने, पीने, पहननेकी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही इस मनके प्रतापसे जीव स्वर्ग - नरकादिमें जा सकता है ॥३॥
जैसे पेड़के बीचमें कठपुतली और सूतमें वस्त्र, बिना बनाये ही सदा रहते हैं, उसी प्रकार इस मनमें भी अनेक प्रकारके शरीर लीन रहते हैं, जो समय पाकर प्रकट हो जाते हैं ॥४॥
इस मनके विकार कब छूटेंगे, जब श्रीरघुनाथजीकी भक्तिरुपी जलसे धुलकर चित्त निर्मल हो जायगा, तब अनायास ही सत्यरुप परमात्मा दिखलायी देंगे । किन्तु तुलसीदास कहते हैं, इस चैतन्यके विलासरुप जगतका सत्य तत्त्व परमात्मा समझते - समझते ही समझमें आवेगा ॥५॥