नाम राम रावरोई हित मेरे ।
स्वारथ - परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥१॥
जननी - जनक तज्यो जनमि , करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे ।
मोहुँसो कोउ - कोउ कहत रामहि को , सो प्रसंग केहि केरे ॥२॥
फिर्यो ललात बिनु नाम उदर लागि , दुखउ दुखित मोहि हेरे ।
नाम - प्रसाद लहत रसाल - फल अब हौं बबुर बहेरे ॥३॥
साधत साधु लोक - परलोकहि , सुनि गुनि जतन घनेरे ।
तुलसीके अवलंब नामको , एक गाँठि कइ फेरे ॥४॥
भावार्थः - हे रामजी ! आपका नाम ही मेरा तो कल्याण करनेवाला है । यह बात मैं हाथ उठाकर स्वार्थके और परमार्थके सभी संगी - साथियोंसे ( परिवारके लोगोंसे और साधकोंसे ) पुकारकर कहत हूँ ( घोषणा कर रहा हूँ ) ॥१॥
माता - पिताने तो मुझे उत्पन्न करके ही छोड़ दिया था , ब्रह्माने भी अभागा और कुछ बेढब - सा बनाया था । फिर भी कोई - कोई मुझे ' रामका ' ( दास ) कहते हैं , यह किस अभिप्रायसे कहते हैं ? ( यह राम - नामका ही प्रताप है ) ॥२॥
जब मैं राम - नामके शरण नहीं हुआ था तब मैं पेट भरनेको ( द्वार - द्वारपर ) ललचाता फिरता था । मेरी ओर देखकर दुःखको भी दुःख होता था ( मेरी ऐसी बुरी दशा थी ) । श्रीरामकी कृपासे पहले मेरे लिये जो बबूल और बहेड़ेके वृक्ष थे , उन्हीं पेड़ोंसे मुझे अब आमके फल मिल रहे हैं । ( जहाँ जगत् दुःखोंसे भरा भासता था वहाँ आज सब ' सीय - रामरुप ' दीखनेके कारण वही सुखमय हो गया है ॥३॥
संतजन तो ( शास्त्रोंको ) सुनकर और ( उसके अनुसार ) मननकर अनेक साधनोंसे अपना लोक और परलोक बना लेते हैं , परन्तु तुलसीके तो एक रामनामका ही अवलम्बन है । जैसे गाँठ तो एक ही होती है , लपेटे चाहे जितने हों ( इसी प्रकार साधन चाहे जितने हों , सबका आधार तो एक राम - नाम ही है ) ॥४॥