राग कान्हरा
अब चित चेति चित्रकूटहि चलु ।
कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह - माया - मलु ॥१॥
भूमि बिलोकु राम - पद - अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु ।
सैल - सृंग भवभंग - हेतु लखु, दलन कपट - पाखंड - दंभ - दलु ॥२॥
जहँ जनमे जन - जनक जगतपति, बिधि - हरि - हर परिहरि प्रपंच छलु ।
सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत - बिषाद भये पारथ नलु ॥३॥
न करु बिलंब बिचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु ।
मंत्र सो जाइ जपहि, सो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥४॥
रामनाम - जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु ।
करिहैं राम भावतौ मनकौ, सुख - साधन, अनयास महाफलु ।५॥
कामदमनि कामता, कलपतरु सो जुग - जुग जागत जगतीतलु ।
तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति - प्रीति एकै बलु ॥६॥
भावार्थः-- हे चित्त ! अब तो चेतकर चित्रकूटको चल । कलियुगने क्रोध कर धर्म और ईश्वरभक्तिरुप कल्याणके मार्गोंका लोप कर दिया हैं; मोह, माया और पापोंकी नित्य वृद्धि हो रही हैं ॥१॥
चित्रकूटमें श्रीरामजीके चरणोंसे चिहिनत भूमिका और उनके विहारके स्थान वनका दर्शन कर ! वहाँ कपट, पाखण्ड और दम्भके दल ( समूह ) - का नाश करनेवाले पर्वतकिए उन शिखरोंको देख, जो जन्म - मरणरुप संसारसे छुटकारा मिलनेके कारण हैं ॥२॥
जहाँपर जगत्पिता जगदीश्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिवने सती अनसूयाके पुत्ररुपसे प्रपंच और छल छोड़कर जन्म लिया है । जिस चित्रकूटरुपी आश्रममें एक बार प्रवेश करते ही जुएमें हारकर वन - वन भटकते हुए युधिष्ठिर आदि पाण्डव और राजा नलका सारा दुःख दूर हो गया ॥३॥
वहाँ जानेमें अब देर न कर, अपनी अच्छी बुद्धिसे यह तो विचार कर कि जितने वर्ष बीत गये सो तो गये, अब आयुके जितने पल बाकी हैं, वे बीते हुए वर्षोंके समान हैं । एक - एक पलको एक - एक वर्षके समान बहुमूल्य समझकर, मृत्युको समीप जानकर, जल्दी चित्रकूट जाकर उस श्रीराम - मन्त्रका जप कर, जिसे जपनेसे श्रीशिवजी कालकूट विष पीनेपर भी अजर - अमर हो गये ॥४॥
जब तू वहाँ निरन्तर श्रीराम - नाम - जपरुपी सर्वश्रेष्ठ यज्ञ और पयस्विनी नदीके पवित्र जलमें स्नान तथा उसके जलका पान करता रहेगा, तब श्रीरामजी तेरी मनः कामना पूरी कर देंगे और इस सुखमय साधनसे सहजहीमें तुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - ये चारों फल दे देंगे ॥५॥
चित्रकूटमें जो कामतानाथ पर्वत है, वही मनोरथ पूर्ण करनेवाली चिन्तामणि और कल्पवृक्ष है, जो युग - युग पृथ्वीपर जगमगाता है । यों तो चित्रकूट सभीके लिये सुखदायक है, परंतु हे तुलसीदास ! तुझे तो विशेषरुपसे उसीके विश्वास, प्रेम और बलपर निर्भर रहना चाहिये ॥६॥