नाहिंन आवत आन भरोसो ।
यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम - फलनि फरो सो ॥१॥
तप , तीरथ , उपवास , दान , मख जेहि जो रुचै करो सो ।
पायेहि पै जानिबो करम - फल भरि - भरि बेद परोसो ॥२॥
आगम - बिधि जप - जाग करत नर सरत न काज खरो सो ।
सुख सपनेहु न जोग - सिधि - साधन , रोग बियोग धरो सो ॥३॥
काम , क्रोध , मद , लोभ , मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो ।
बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम धरो सो ॥४॥
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ - तहाँ झगरो सो ।
गुरु कह्यो राम - भजन नीको मोंहिं लगत राज - डगरो सो ॥५॥
तुलसी बिनु परतीति प्रीती फिरि - फिरि पचि मरै मरो सो ।
रामनान - बोहित भव - सागर चाहै तरन तरो सो ॥६॥
भावार्थः - ( श्रीराम - नामके सिवा ) मुझे दूसरे किसी ( साधन ) - पर भरोसा नहीं होता । इस कलियुगमें सभी साधनरुपी वृक्षोंमें केवल परिश्रमरुपी फल ही फले - से दिखायी देते हैं अर्थात् उन साधनोंमें लगे रहनेसे केवल श्रम ही हाथ लगता है , फल कुछ नहीं होता ॥१॥
तप , तीर्थ , व्रत , दान , यज्ञ अदि जो जिसे अच्छा लगे , सो करे । किन्तु इन सब कर्मोंका फल पानेपर ही जान पड़ेगा , यद्यापि वेदोंने ( पत्तल ) भर - भरकत फलोंको परोसा है । भाव यह कि वेदोंमें इन कर्मोंकी बड़ी प्रशंसा है , परन्तु कलियुग इन्हें सफल ही नहीं होने देगा तब फल कहाँसे मिलेगा ? ॥२॥
शास्त्रकी विधिसे मनुष्य जप और यज्ञ करते हैं किन्तु उनसे असली कार्यकी सिद्धि नहीं होती । योग - सिद्धियोंके साधनमें सुख स्वप्नमें भी नहीं है । ( क्रिया जाननेवालोंके अभावसे ) इस साधनमें भी रोग और वियोग प्रस्तुत हैं ( शरीर रोगी हो जाता है , जिसके फलस्वरुप प्रियजनोंसे विछोह हो जाता है ) ॥३॥
काम , क्रोध , मद , लोभ और मोहने मिलकर ज्ञान वैराग्यको तो हर - सा लिया है । और संन्यास लेनेपर तो यह मन ऐसा बिगड़ जाता है , जैसे पानीके डालनेसे कच्चा घड़ा गल जाता है ॥४॥
मुनियोंके अनेक मत हैं , ( छः दर्शन हैं ) और पुराणोंमें नाना प्रकारके पन्थ देखकर जहाँ - तहाँ झगड़ा - सा ही जान पड़ता है । गुरुने मेरे लिये राम - भजनको ही उत्तम बतलाया है और मुझे भी सीधे राज - मार्गके समान वही अच्छा लगता है ॥५॥
हे तुलसी ! विश्वास और प्रेमके बिना जिसे बार - बार पच - पचकर मरना हो , वह भले ही मरे , किन्तु संसार - सागरसे तरनेके लिये तो राम - नाम ही जहाज है । जिसे पार होना हो , वह ( इसपर चढ़कर ) पार हो जाय ॥६॥