पवन - सुवन ! रिपु - दवन ! भरतलाल ! लखन ! दीनकी ।
निज निज अवसर सुधि किये , बलि जाउँ , दास - आस पूजि है खासखीनकी ॥१॥
राज - द्वार भली सब कहैं साधु - समीचीनकी ।
सुकृत - सुजस , साहिब - कृपा , स्वारथ - परमारथ , गति भये गति - बिहीनकी ॥२॥
समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी ।
प्रीति - रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी ॥३॥
भावार्थः - हे पवनकुमार ! हे शत्रुघ्नजी ! हे भरतलालजी ! हे लखनलालजी ! अपने - अपने अवसरसे ( मौका लगते ही ) इस दीन तुलसीको याद करना । मैं आपलोगोंकी बलैया लेता हूँ । आपके ( कृपापूर्वक ) ऐसा करनेसे इस सर्वथा दुर्बल दासकी आशा पूरी हो जायगी ( श्रीरघुनाथजी मेरी पत्रिकापर ' सही ' कर देंगे ) ॥१॥
राज - दरबारमें सच्चे साधुओंकी तो सभी अच्छी कहते हैं , इसमें क्या विशेषता है ? किन्तु यदि आपलोग इस शरणरहित दीनके सिफारिश कर देंगे तो इसको भगवानकी शरण मिल जायगी , आपको पुण्य होगा और सुन्दर यश फैलेगा , आपके स्वामी आपपर कृपा करेंगे ( क्योंकि वह दीनोंपर दया करनेवालोंपर स्वाभाविक ही प्रसन्न हुआ करते हैं ) आपके स्वार्थ और परमार्थ दोनों बन जायँगे ॥२॥
इसलिये अवसर देखकर ( मौका पाते ही ) इस पतित तुलसीकी बात सुधार देना । शरणागतवत्सल कृपालु रघुनाथजीसे मुझ पराधीनके प्रेमकी रीतिकी हदको समझाकर कह देना ॥३॥