राग रामकली
जय जय जगजननि देवि सुर - नर - मुनि - असुर - सेवि, भुक्ति - मुक्ति - दायिनी, भय - हरणि कालिका ।
मंगल - मुद - सिद्धि - सदनि, पर्वशर्वरीश - वदनि, ताप - तिमिर - तरुण - तरणि - किरणमालिका ॥१॥
वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल - शेल - धनुषबाण, धरणि दलनि दानव - दल, रण - करालिका ।
पूतना - पिशाच - प्रेत - डाकिनि - शाकिनि - समेत, भूत - ग्रह - बेताल - खग - मृगालि - जालिका ॥२॥
जय महेश - भामिनी, अनेक - रुप - नामिनी, समस्त - लोक - स्वामिनी, हिमशैल - बालिका ।
रघुपति - पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम, देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत - पालिका ॥३॥
भावार्थः-- हे जगतकी माता ! हे देवि !! तुम्हारी जय हो, जय हो । देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं । तुम भोग और मोक्ष दोनोंको ही देनेवाली हो । भक्तोंका भय दूर करनेके लिये तुम कालिका हो । कल्याण, सुख और सिद्धियोंकी स्थान हो । तुम्हारा सुन्दर मुख पूर्णिमाके चन्द्रके सदृश है । तुम आध्यात्मिक, आधिभौतिक ओर आधिदैविक तापरुपी अन्धकारका नाश करनेके लिये मध्याह्नके तरुण सूर्यकी किरण - माला हो ॥१॥
तुम्हारे शरीरपर कवच है । तुम हाथोंमें ढाल - तलवार, त्रिशूल, साँगी और धनुष - बाण लिये हो । दानवोंके दलका संहार करनेवाली हो, रणमें विकरालरुप धारण कर लेती हो । तुम पूतना, पिशाच, प्रेत और डाकिनीशाकिनियोंके सहित भूत, ग्रह और बेतालरुपी पक्षी और मृगोंके समूहको पकड़नेके लिये जालरुप हो ॥२॥
हे शिवे ! तुम्हारी जय हो । तुम्हारे अनेक रुप और नाम हैं । तुम समस्त संसारकी स्वामिनी और हिमाचलकी कन्या हो । हे शरणागतकी रक्षा करनेवाली ! मैं तुलसीदास श्रीरघुनाथजी\के चरणोंमें परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूँ, सो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो ॥३॥