माधव ! मो समान जग माहीं ।
सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन - बिषय कोउ नाहीं ॥१॥
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत - हित ईस न त्यागी ।
मैं दुख - सोक - बिकल कृपालु ! केहि कारन दया न लागी ॥२॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना ।
ग्यान - भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥३॥
बेनु करील, श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै ।
सार - रहित हत - भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥४॥
सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि, दृढ़ बिचार जिय मोरे ।
तुलसिदास प्रभु मोह - सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥५॥
भावार्थः- हे माधव ! संसारमें मेरे समान, सब प्रकारसे साधनहीन, पापी, अति दीन और विषय - भोगोंमें डूबा हुआ दुसरा कोई नहीं है ॥१॥
और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करनेवाला, दीन - दुःखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला स्वामी कोई दूसरा नहीं है । भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरुप छोड़कर धराधाममें मानवरुपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा ? इतनेपर भी मैं दुःख और शोकसे व्याकुल हो रहा हूँ । हे कृपालो ! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती ? ॥२॥
मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है । क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य - शरीर दिया, उसे पाकर भी मैने तुमसरीखे प्रभुको आजतक नहीं पहचाना ॥३॥
बाँस चन्दनको और करील वसन्तको वृथा ही दोष देते हैं । असलमें दोनों हतभाग्य हैं । बाँसमें सार ही नहीं हैं, तब बेचारा चन्दन उसमें सुगन्ध कहाँसे भर दे ? इसी प्रकार करीलमें पत्ते नहीं होते फिर वसन्त उसे कैसे हरा - भरा कर देगा ? ( वैसे ही मैं विवेकहीन और भक्तिशून्य कैसे तुमपर दोष लगा सकता हूँ ? ) ॥४॥
हे हरे ! मैं सब प्रकार कठोर हूँ, पर तुम तो कोमल स्वभाववाले हो; मैंने अपने मनमें यह निश्चयरुपसे विचार कर लिया है कि हे प्रभो ! इस तुलसीदासकी मोहरुपी बेड़ी तुम्हारे ही छुड़ानेसे छूट सकेगी, अन्यथा नहीं ॥५॥