कबहुँ कृपा करि रघुबीर ! मोहू चितैहो ।
भलो - बुरो जन आपनो , जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित बितैहो ॥१॥
जनम जनम हौं मन जित्यो , अब मोहि जितैहो ।
हौं सनाथ ह्वैहौ सही , तुमहू अनाथपति , जो लघुताहि न भितैहो ॥२॥
बिनय करौं अपभयहु तें , तुम्ह परम हितै हो ।
तुलसिदास कासों कहै , तुमही सब मेरे , प्रभु - गुरु , मातु - पितै हो ॥३॥
भावार्थः - हे रघुवीर ! कभी कृपाकर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! ' भला - बुरा जो कुछ भी हूँ , आपका दास हूँ ', अपने मनमें इस बातको समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अन्त कर देंगे ? ( अपनी दयासे मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगे ? ) ॥१॥
( अबसे पूर्व ) प्रत्येक जन्ममें यह मन मुझे जीतता चला आया है ( मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ ), इस बार क्या आप मुझे इससे जिता देंगे ? ) ( क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणोंमें लग जायगा ? ( तब ) मैं तो सनाथ हो ही जाऊँगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रतासे नहीं डरेंगे , तो ' अनाथ - पति ' पुकारे जाने लगेंगे ( मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ - नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा ) ॥२॥
मैं अपने ही डरके मारे आपसे यों विनय कर रहा हूँ । आप तो मेरे परम हितू हैं । ( परन्तु नाथ ! ) यह तुलसीदास अपना दुःख और किसे सुनाने जाय ? क्योंकि मेरे तो मालिक , गुरु , माता , पिता आदि सब कुछ केवल आप ही हैं ॥३॥