ताते हौं बार बार देव ! द्वर परि पुकार करत ।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥१॥
लोकपाल सोक - बिकल रावन - डर डरत ।
का सुनि सकुचे कृपालु नर - सरीर धरत ॥२॥
कौसिक, मुनि - तीय, जनक सोच - अनल जरत ।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥३॥
केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत ।
सनमुख तोहिं होत नाथ ! कुतरु सुफरु फरत ॥४॥
बंधु - बैर कपि - बिभीषन गुरु गलानि गरत ।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥५॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत ।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥६॥
जाने बिनु राम - रीति पचि पचि जग मरत ।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु - से तरत ॥७॥
भावार्थः- हे नाथ ! मैं तुम्हारे इसी स्वभावको जानकर द्वारपर पड़ा हुआ बार - बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो ! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो ॥१॥
जब रावणके भयके मारे इन्द्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोकसे व्याकुल हो गये थे, तब हे कृपालु ! तुमने क्या सुनकर संकोचसे नरशरीर धारण किया था ? ॥२॥
यह समझमें नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहल्या और जनक चिन्ताकी अग्निमें जले जा रहे थे, वे किस साधनसे शीतल हो गये ? ॥३॥
गुह निषाद, पक्षी ( जटायु ), शबरी आदि स्वभावसे ही तुम्हारे चरण - कमलोंमें रत नहीं थे; किन्तु हे नाथ ! तुम्हारे सामने आते ही ( इन ) बुरे - बुरे वृक्षोंमें भी अच्छे - अच्छे फल फल गये ! भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागतिसे तर गये ॥४॥
अपने - अपने भाईके साथ शुत्रता करनेसे सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःखसे गले जाते थे । हे रामजी ! तुमने किस सेवासे रीझकर उन्हें भरतजीके समान मान लिया ॥५॥
हनुमानजी तुम्हारी सेवा करते - करते तुम्हारे ही समान हो गये । हे रामजी ! उन ( हनुमानजी ) का नाम लेते ही तुम सबपर भलीभाँति प्रसन्न हो जाते हो ॥६॥
( यह सब क्यों हुआ ? दुःख, नम्रता और दीनताके कारण ही तुमने ऐसा किया ) इसलिये हे नाथ ! तुम्हारी ( रीझनेकी ) रीति न जाननेके कारण ही जगत् अन्यान्य साधनोंमें पच - पचकर मर रहा है । तुम दुःखियों, नम्रौं और दीनोंपर प्रसन्न होते हो यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरणमें ज्ञानेसे तुलसी - जैसे जीव भी तो संसार - सागरसे तर गये ॥७॥