ऐसी मूढ़ता या मनकी ।
परिहरि राम - भगति - सुरसरिता, आस करत ओसकनकी ॥१॥
धूम - समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥२॥
ज्यों गच - काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी ।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥३॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि ! जानत हौ गति जनकी ।
तुलसीदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥४॥
भावार्थः-- इस मनकी ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम - भक्तिरुपी गंगाजीको छोड़कर ओसकी बूँदोंसे तृप्त होनेकी आशा करता है ॥१॥
जैसे प्यासा पपीहा धुएँका गोट देखकर उसे मेघ समझ लेता है, परन्तु वहाँ ( जानेपर ) न तो उसे शीतलता मिलती है और न जल मिलता है, धुएँसे आँखें और फूट जाती हैं । ( यही दशा इस मनकी है ) ॥२॥
जैसे मूर्ख बाज काँचकी फर्शमें अपने ही शरीरकी परछाईं देखकर उसपर चोंच मारनेसे वह टूट जायगी इस बातको भूखके मारे भूलकर जल्दीसे उसपर टूट पड़ता है ( वैसे ही यह मेरा मन भी विषयोंपर टूट पड़ता है ) ॥३॥
हे कृपाके भण्डार ! इस कुचालका मैं कहाँतक वर्णन करुँ ? आप तो दासोंकी दशा जानते ही हैं । हे स्वामिन् ! तुलसीदासका दारुण दुःख हर लीजिये और अपने ( शरणागत - वत्सलातारुपी ) प्रणकी रक्षा कीजिये ॥४॥