विनय पत्रिका - विनयावली ८३
विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।
मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥१॥
हैं घर - घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।
बानर - बंधु बिभीषन - हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥२॥
प्रनतारति - भंजन जन - रंजन, सरनागत पबि - पंजर नाउँ ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥३॥
भावार्थः- हे रघुनाथजी ! आपपर बलिहारी जाता हूँ, मुझे तो बस आपकी ही शरण है । क्योंकि इस निर्लज्ज, नीच, कंगाल और गुणहीनके लिये संसारमें ( आपको छोड़कर ) न तो कोई मालिक है, और न कोई ठौरठिकाना ही ॥१॥
वैसे तो घर - घर बहुतेरे अच्छे - अच्छे मालिक हैं, किन्तु उन सबको अपना ही स्वार्थ सूझता है । मैं तो बंदर ( सुग्रीव ) - के मित्र और विभीषणके हितैषी कोशलेश श्रीरामचन्द्रजीको छोड़कर और कहीं भी शरण नहीं पा सकता, और किसी मालिकके यहाँ मेरा टिकाव नहीं हो सकता ॥२॥
आप आश्रितोके दुःखोंका नाश करनेवाले और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं । शरणागतोंके लिये तो आपका नाम ही वज्रके पिंजरेके समान हैं । भाव यह कि आपका नाम लेते ही वे तो सुरक्षित हो जाते हैं । अतः हे कृपासागर ! अब तुलसीदासको तो अपना दास बना ही लीजिये ! मैं अब बिना ही मोलके ( आपके हाथमें ) बिकना चाहता हूँ ॥३॥
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Last Updated : November 11, 2010
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