कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे ।
जेहि कृपा ब्याध , गज , बिप्र , खल नर तरे ,
तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥१॥
जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि ,
अधम आचरन कछु हदय नहि धरहुगे ।
दीनहित ! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल
चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥२॥
मोह - मद - मान - कामादि खलमंडली
सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे ।
जोग - जप - जग्य - बिग्यान ते अधिक अति ,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥३॥
मंदजन - मौलिमनि सकल , साधन - हीन ,
कुटिल मन , मलिन जिय जानि जो डरहुगे ।
दासतुलसी बेद - बिदित बिरुदावली
बिमल जस नाथ ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥४॥
भावार्थः - हे रघुवंशमणि ! कभी आप मुझपर भी वही कृपा करेंगे , जिसके प्रतापसे व्याध ( वाल्मीकि ), गजेन्द्र , ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गये ? हे नाथ ! क्या आप मुझे भी उन्ह्यीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे ? ॥१॥
अनेक योनियोंमें जन्म लेलेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किये हैं । आप मेरे नीच आचरणोंकी बात तो हदयमें न लायँगे ? हे दीनोंका हित करनेवाले ! क्या आप किसीसे भी न जीते जाने , सबके मनकी बात जानने , सब कुछ करनेमें समर्थ होने और शरणागतोंकी रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे ? ( अर्थात अपने इन गुणोंकी ओर देखकर , मेरे पापोंसे धिना कर , मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुएका उद्धार करेंगे ? ) ॥२॥
मेरे हदयमें अज्ञान , अहंकार , मान , काम आदि दुष्टोंकी जो मण्डली बस रही है , उसे परिवारसहित समूल नष्ट करके क्या आप मेरे असह्य दुःखोंकी दूर करेंगे ? और क्या आप योग , जप , यज्ञ और विज्ञानकी अपेक्षा निर्मल और अधिक महत्त्ववाली अपनी भक्तिको देकर मेरे हदयमें परमानन्द भर देंगे ॥३॥
यदि आप इस तुलसीदासको नीचोंका शिरोमणि , सब साधनोंसे रहित , कुटिल एवं मलिन मनवाला मानकर अपने मनमें कुछ डरेंगे ( कि इतने बड़े पापीका उद्धार करनेसे कदाचित् हमपर लोग अन्यायीपनका दोषारोपण करें ) तो हे नाथ ! फिर आप अपनी वेदविख्यात विरदावली तथा निर्मल कीर्तिका विस्तार कैसे करेंगे ? ( यदि आपको अपने बानेकी लाज है , तो मेरा उद्धार अवश्य ही कीजिये ) ॥४॥