देव
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप - पुंज - हारी ॥१॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो ।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥२॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो ।
तात - मात, गुरु - सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥३॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै ।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु ! चरन - सरन पावै ॥४॥
भावार्थः-- हे नाथ ! तू दीनोंपर दया करनेवाला है, तो मैं दीन हूँ । तू अतुल दानी है, तो मैं भीखमंगा हूँ । मैं प्रसिद्ध पापी हूँ, तो तू पाप - पुंजोंका नाश करनेवाला है ॥१॥
तू अनाथोंका नाथ है, तो मुझ - जैसा अनाथ भी और कौन है ? मेरे समान कोई दुःखी नहीं है और तेरे समान कोई दुःखोंको हरनेवाला नहीं है ॥२॥
तू ब्रह्म है, मैं जीव हूँ । तू स्वामी है, मैं सेवक हूँ । अधिक क्या, मेरा तो माता, पिता, गुरु, मित्र और सब प्रकारसे हितकारी तू ही है ॥३॥
मेरे - तेरे अनेक नाते हैं; नाता तुझे जो अच्छा लगे, वही मान ले । परंतु बात यह है कि हे कृपालु ! किसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरणोंकी शरण पा जावे ॥४॥