राग भैरव
राम राम रमु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा ।
रामनाम - नवनेह - मेहको, मन ! हठि होहि पपीहा ॥१॥
सब साधन - फल कूप - सरित - सर, सागर - सलिल - निरासा ।
रामनाम - रति - स्वाति - सुधा - सुभ - सीकर प्रेमपियासा ॥२॥
गरजि, तरजि, पाषान बरषि पवि, प्रीति परखि जिय जानै ।
अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै ॥३॥
रामनाम - गति, रामनाम - मति, राम - नाम - अनुरागी ।
ह्वै गये, हैं, जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी ॥४॥
एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं ।
तुलसी हित अपनो अपनी दिसि, निरुपाधि नेम निबाहैं ॥५॥
भावार्थः-- हे जीभ ! तू सदा राम राममें रमा कर, राम राम रटा कर और राम रामका जाप किया कर । हे मन ! तू भी रामनाममें प्रेमरुपी नित्य - नवीन मेघके लिये हठ करके पपीहा बन जा ॥१॥
जैसे पपीहा कुआँ, नदी, तालाब और समुद्रतकके जलकी जरा - सी भी आशा न कर केवल स्वाती - नक्षत्रके जलकी एक प्रेम - बूँदके लिये प्यासा रहता है, ऐसे ही तू भी और सारे साधनों तथा उनके फलोंकी आशा न कर केवल श्रीरामनामके प्रेमरुपी अमृतकी बूँदमें ही प्रीति कर ॥२॥
पपीहेपर उसका प्रेमी मेघ गरजता है, डाँट बतलाता है, ओले बरसाता है, वज्रपात करता है, इस प्रकार कठिन - से कठिन परीक्षा करके पपीहके अनन्य प्रेमको पूर्णरुपसे परखकर जब वह इस बातको जान लेता है कि ज्यों - ज्यों परीक्षा लेता हूँ त्यों - त्यों इस पपीहेका प्रेम अधिकाधिक बढ़ता है, ( तब उसे स्वातीकी बूँद मिलती है ) ॥३॥
इसी प्रकार ( भगवानकी दयासे परीक्षाके लिये कैसे ही संकट आकर तुझे विचलित करनेकी चेष्टा क्यों न करें ) तू तो ( अनन्य मनसे ) श्रीरामनामकी ही शरण ग्रहण कर, रामनाममें ही बुद्धि लगा, राम - नामका ही प्रेमी बन । ऐसे रामनामके आश्रित जितने भक्त हो गये हैं, अभी हैं ओर जो आगे होंगे, त्रिलोकीमें उन्हीको बड़ा भाग्यवान् समझना चाहिये ॥४॥
यह ( रामनाममें अनन्य प्रेम करनेका ) एकांगी मार्ग बड़ा ही कठिन है, यदि तू इस मार्गपर चला जाय तो क्षणक्षणमें ( सांसारिक सुखोंकी ) छाया लेनेके लिये ठहरकर देर न करना । हे तुलसीदास ! तेरा भला तो अपनी ओरसे श्रीरामनाममें निरुपधि अर्थात् निष्कपट प्रेमके निबाहनेसे ही होगा ॥५॥