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विनयावली ४८

विनय पत्रिका - विनयावली ४८

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु ।

ज्यों गज - दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥१॥

जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे ।

रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद - सुख पाइय कैसे ॥२॥

देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी ।

सबिष उरग - आहार, निठुर अस, यह करनी वह बानी ॥३॥

अखिल - जीव - वत्सल, निरमत्सर, चरन - कमल - अनुरागी ।

ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज - पर - त्यागी ॥४॥

जद्यपि मम औगुन अपार संसार - जोग्य रघुराया ।

तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥५॥

भावार्थः- हे हरे ! मैं किस प्रकार सुख मानूँ ? मेरी करनी हाथीके दिखावटी दाँतोंके समान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो । भाव यह है कि जैसे हाथीके दाँत दिखानेके और तथा खानेके और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ ॥१॥

मैं दूसरोंसे जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करनेमें भी लगूँ तो भव - सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ । परन्तु करुँ क्या ? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही । फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले ? ॥२॥

मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणीसे अमृतसे सने हुए - से वचन बोलता हैं; किन्तु उसका आहार जहरीला साँप है ! कैसा निष्ठुर है ! करनी यह और कथनी वह ! ( यही मेरा हाल है ) ॥३॥

हे रघुवीर ! तुमको तो वे ही संत प्यारे हैं, जो समस्त जीवोंसे प्रेम करते हैं, किसीको भी देखकर तनिक भी नहीं जलते, जो तुम्हारे चरणारविन्दोंके प्रेमी हैं, जो धीर - बुद्धि है और जो अपने - परायेका भेद बिलकुल ही छोड़ चुके हैं, अर्थात् सबमें एक तुमको ही देखते हैं ( फीर मैं इन गुणोंसे हीन तुम्हें कैसे प्रिय लगूँ ? ) ॥४॥

हे रघुनाथजी ! यद्यपि मुझमें अनन्त अवगुण हैं और मैं संसारमें ही रहने योग्य हूँ, परन्तु तुम करुणानिधान हो, तनिक अपने गुणोंपर विचार करके ही तुलसीदासपर दया करो ! ॥५॥

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Last Updated : March 22, 2010

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