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विनयावली १४३

विनय पत्रिका - विनयावली १४३

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


हरि - सम आपदा - हरन ।

नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख - सागर - तरन ॥१॥

गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन ।

दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ - धरन ॥२॥

द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन ।

' हा हरि पाहि ' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥३॥

इहै जानि सुर - नर - मुनि - कोबिद सेवत चरन ।

तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग - उद्धरन ॥४॥

भावार्थः - भगवान् श्रीहरिके समान विपत्तियोंका हरनेवाला , सहज ही कृपा करनेवाला और दुःसह दुःखरुपी समुद्रसे तारनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥१॥

जब गजराज अपना बल ( क्षीण हुआ ) देखकर ( भेंटके लिये ) कमलका फूल ले आपकी शरणमें गया तब उसके दीन वचन सुनकर सुदर्शनचक्र ले आप गरुड़को वहीं छोड़ तुरंत ही ( पैदल दौड़ते हुए ) चले आये ॥२॥

जब ( भरी सभामें ) दुष्ट दुःशासन द्रौपदीका वस्त्र उतारने लगा , तब केवल उसके इतना कहनेपर ही कि ' हाय ! भगवान् मेरी रक्षा कीजिये ' आपने विविध रंगोंकी साड़ियोंका ढेर लगा दिया ॥३॥

( आपकी इसी दीनवत्सलताको ) जानकर देवता , मनुष्य , मुनि और विद्वान आपके चरणोंकी सेवा करते हैं । राजा नृगका उद्धार करनेवाले भगवानने किसको अभय नहीं किया ? ( जो उनकी शरणमें गया , उसीको अभय कर दिया ) ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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