हरि - सम आपदा - हरन ।
नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख - सागर - तरन ॥१॥
गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन ।
दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ - धरन ॥२॥
द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन ।
' हा हरि पाहि ' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥३॥
इहै जानि सुर - नर - मुनि - कोबिद सेवत चरन ।
तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग - उद्धरन ॥४॥
भावार्थः - भगवान् श्रीहरिके समान विपत्तियोंका हरनेवाला , सहज ही कृपा करनेवाला और दुःसह दुःखरुपी समुद्रसे तारनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥१॥
जब गजराज अपना बल ( क्षीण हुआ ) देखकर ( भेंटके लिये ) कमलका फूल ले आपकी शरणमें गया तब उसके दीन वचन सुनकर सुदर्शनचक्र ले आप गरुड़को वहीं छोड़ तुरंत ही ( पैदल दौड़ते हुए ) चले आये ॥२॥
जब ( भरी सभामें ) दुष्ट दुःशासन द्रौपदीका वस्त्र उतारने लगा , तब केवल उसके इतना कहनेपर ही कि ' हाय ! भगवान् मेरी रक्षा कीजिये ' आपने विविध रंगोंकी साड़ियोंका ढेर लगा दिया ॥३॥
( आपकी इसी दीनवत्सलताको ) जानकर देवता , मनुष्य , मुनि और विद्वान आपके चरणोंकी सेवा करते हैं । राजा नृगका उद्धार करनेवाले भगवानने किसको अभय नहीं किया ? ( जो उनकी शरणमें गया , उसीको अभय कर दिया ) ॥४॥