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विनयावली ९४

विनय पत्रिका - विनयावली ९४

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


जानत प्रीति - रीति रघुराई ।

नाते सब हाते करि राखत , राम सनेह - सगाई ॥१॥

नेह निबाहि देह तजि दसरथ , कीरति अचल चलाई ।

ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥२॥

तिय - बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।

रन पर्यो बंधु बिभीषन ही को , सोच हदय अधिकाई ॥३॥

घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे , भइ जब जहँ पहुनाई ।

तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥४॥

सहज सरुप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई ।

केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥५।

प्रेम - कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई ।

तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानिहि को सेवकाई ॥६॥

तुलसी राम - सनेह - सील लखि , जो न भगति उर आई ।

तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु - तरुनता गवाँई ॥७॥

भावार्थः - प्रीतिकी रीति एक श्रीरघुनाथजी ही जानते हैं । श्रीरामजी सब नातोंको छोड़कर केवल प्रेमका ही नाता रखते हैं ॥१॥

जिन महाराज दशरथने प्रेमके निभानेमें शरीर छोड़कर , अपनी अचल कीर्ति स्थापित कर दी , उन प्रेमी पितासे भी आपने जटायु गीधपर अधिक ममता और गुण - गौरवता दिखायी , ( दशरथका मरण रामके सामने नहीं हुआ , परन्तु प्यारे गीधके प्राण तो रामकी गोदमें निकले और हाथों पिण्डदान देकर उसका उद्धार किया ) ॥२॥

मित्र सुग्रीवको स्त्रीके विरहमें देखकर आपने अपनी प्राणाधिका प्यारी सीताजीको भी भुला दिया ( जानकीजीका पता लगानेकी बात भुला पहले बालिको मारकर सुग्रीवका दुःख दूर किया ) । रणभूमिमें शक्तिके लगनेसे प्यारे भाई लक्ष्मण मूर्च्छित होकर पड़े हैं , पर ( उनका दुःख भूलकर ) आप हदयमें विभीषणहीकी चिन्ता करने लगे ( कि जब लक्ष्मण ही न बचेंगे , तब मैं रावणके साथ युद्ध करके क्या करुँगा ? ऐसा होनेपर वानर , भालु तो अपने घर चले जायँगे , परन्तु बेचारा विभीषण कहाँ जायगा ? ) ॥३॥

घरमें , गुरु वसिष्ठके आश्रममें , प्रिय मित्रोंके यहाँ अथवा ससुरालमें , जब - जब जहाँ आपकी मेहमानी हुई , तब वहाँ आपने यही कहा , कि मुझे जैसा शबरीके बेरोंमें स्वाद और मिठास मिला था , वैसा कहीं नहीं मिला ॥४॥

जब मुनिलोग आपके सहज स्वरुप अर्थात् निर्गुण परमात्म - स्वरुपका बखान करने लगते हैं , तब तो आप लज्जाके मारे सिर झुका लिया करते हैं । किन्तु जब केवट और बंदर आपको ' मित्र ' एवं ' भाई ' कहते हैं , तो अपनी बड़ाई मानते हैं ( अथवा केवटका मित्र कहे जानेपर आप प्रसन्न होते हैं और वानरबन्धु कहलानेमें अपना बड़प्पन समझते हैं ) ॥५॥

हे भाई ! रघुनाथजीके समान प्रेमके वश रहनेवाला तीनों लोकों और तीनों कालोंमें दूसरा कोई नहीं है । जिन्होंने हनुमानजीसे यहाँतक कह दिया कि '' मैं तेरा ऋणी हूँ ' उनके समान सेवाके लिये कृतज्ञ होनेवाला और कौन हैं ? ॥६॥

हे तुलसी ! श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा स्नेह और शील देखकर भी उनके प्रति यदि तेरे हदयमें भक्तिका उदय न हुआ , तो तुझे जन्म देकर तेरी माँने व्यर्थ ही अपनी जवानी खोयी ॥७॥

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Last Updated : November 11, 2010

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