नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति - सम बिपति - निवारन ।
काको सहज सुभाउ सेवकबस , काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥१॥
जन - गुन अलप गनत सुमेरु करि , अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन ।
परम कृपालु , भगत - चिंतामनि , बिरद पुनीत , पतितजन - तारन ॥२॥
सुमिरत सुलभ , दास - दुख सुनि हरि चलत तुरत , पटपीत सँभार न ।
साखि पुरान - निगम - आगम सब , जानत द्रुपत - सुता अरु बारन ॥३॥
जाको जस गावत कबि - कोबिद , जिन्हके लोभ - मोह , मद - मार न ।
तुलसिदास तजि आस सकल भजु , कोसलपति मुनिबधू - उधारन ॥४॥
भावार्थः - श्रीरघुनाथजीके समान विपत्तियोंको दूर करनेवाला तथा शरण लेनेयोग्य कोई दूसरा नहीं हैं । ऐसा किसका सरल स्वभाव है जो अपने सेवकोंके वशमें रहता हो ? शरणागत भक्तोंपर किसका अहैतुक प्रेम है ? ॥१॥
श्रीरघुनाथजी अपने दासके जरा - से भी गुणको सुमेरु पर्वतके सदृश महान् मानते हैं , और उसके करोड़ों दोषोंको देखकर भी उन्हें भूल जाते हैं । क्योंकि वे बड़े ही कृपालु , भक्तोंके ( मनोरथको पूर्ण करनेवाले ) चिन्तामणीस्वरुप , पवित्र करनेके विरदवाले और पतितोंको ( संसार - सागरसे ) उद्धार कर देनेवाले हैं ॥२॥
स्मरण करते ही , सहज ही मिल जाते हैं और अपने दासके दुःखको सुनकर इतनी जल्दी ( दुःख दूर करनेके लिये ) दौड़े आते हैं कि ( देर होनेके भयसे ) वे अपने पीताम्बरतकको नहीं सँभालते । इस बातके साक्षी पुराण , वेद , शास्त्र हैं , द्रौपदी और गजेन्द्र ( आदि अच्छी तरह ) जानते हैं ॥३॥
जिनके लोभ , मोह , मद और काम नहीं हैं , ऐसे कवि और ज्ञानी महात्मा जिनका यश गाते हैं , हे तुलसीदास ! सारी ( लोक - परलोककी ) आशाओंको छोड़कर अहल्याके उद्धार करनेवाले उन प्रभु श्रीकोसलनाथका ही तू भजन कर ॥४॥