जौ पै हरि जनके औगुन गहते ।
तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥१॥
जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते ।
तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप - गेह बसि रहते ॥२॥
जौ जहँ - तहँ प्रन राखि भगतको, भजन - प्रभाउ न कहते ।
तौ कलि कठिन करम - मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥३॥
जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते ।
तौ जमभट साँसति - हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥४॥
जौ जबबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते ।
तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥५॥
भावार्थः-- ( आप दासोंके दोषोपर ध्यान नहीं देते ) हे रामजी ! यदि आप दासोंका दोष मनमें लाते तो इन्द्र, दुर्योधन और बालिसे हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते ? ॥१॥
यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोड़कर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर व्रजमें गोपोंके घर किसलिये निवास करते ? ॥२॥
यदि आप जहाँ - तहाँ भक्तोंका प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानते तो, हम - सरीखे मूर्खोंका कलियुगके कठिन कर्म - मार्गमें किस प्रकार निर्वाह होता ? ॥३॥
हे संकटहारी ! यदि आपने पुत्रके संकेतसे नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनन्त पापोंको भस्म न किया होता, तो यमदूत हमसरीखे बैलोंको खोज - खोजकर हलमें ही जोतते ॥४॥
और यदि आपने जगत्प्रसिद्ध पतितपावन रुपका बाना नहीं धारण किया होता तो तुलसी - सरीखे दुष्ट तो अनेक कल्पोंतक स्वप्नमें भी मुक्तिके भागी नहीं होते ॥५॥