राम राय ! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?
स्वामी - सहित सबसों कहौं , सुनि - गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥१॥
देह - जीव - जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो ।
किये बिचार सार कदलि ज्यों , मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो ॥२॥
' बिनय - पत्रिका ' दीनकी , बापु ! आपु ही बाँचो ।
हिये हेरि तुलसी लिखी , सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥३॥
भावार्थः - हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी ! आपको छोड़कर मेरा सच्चा हितू और कौन हैं ? मैं अपने स्वामीसहित सभीसे कहता हूँ , उसे सुन - समझकर यदि कोई और बड़ा हो , तो दूसरी लकीर खींच दीजिये ॥१॥
शरीर और जीवात्माके सम्बन्धके जितने सखा या हितू मिलते हैं , वे सब ( असत् ) मिथ्या टाँकोंसे सिले हुए हैं । ( संसारके सभी सम्बन्ध मायिक हैं ) विचार करनेपर ये ' सखा ' केलेके पेड़के सारके समान हैं । ( जैसे केलेके पेड़को छीलनेपर छिलके ही निकलते हैं , वैसे ही संसारके सारे सम्बन्ध भी सारहीन केवल अज्ञानजनित ही हैं ) ये वैसे ही सुन्दर जान पड़ते हैं , जैसे मणि - सुवर्णके संयोगसे बीच - बीच क्षुद्र काँच भी शोभा देता है ॥२॥
हे बापजी ! इस दीनकी लिखी ' विनय - पत्रिका ' को तो आप स्वयं ही पढ़िये । ( किसी दूसरेसे न पढ़वाइये । ) तुलसीने इसमें अपने हदयकी सच्ची बातें ही लिखी हैं , इसपर पहले आप अपने ( दयालु ) स्वभावसे ' सही ' बना दीजिये । फिर पीछे पंचोंसे पूछिये ॥३॥