हरि तजि और भजिये काहि ?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥१॥
कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात ।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥२॥
संभु - सेवक जान जग , बहु बार दिये दस सीस ।
करत रम - बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥३॥
और देवनकी कहा कहौं , स्वारथहिके मीत ।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥४॥
को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति ।
दासतुलसी दीनपर एक राम ही कि प्रीति ॥५॥
भावार्थः - भगवान् श्रीहरिको छोड़कर और किसका भजन करें ? श्रीरघुनाथजीके समान ऐसा कोई भी नहीं है जिसकी दीन शरणागतोंपर ममता हो ॥१॥
( प्रमाण सुनिये ) हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीका कर्म , मन और वचनसे भक्त था , किन्तु ब्रह्माने ( उसके कालको जानते हुए भी ) उसे पुत्र ( प्रह्लाद ) को ताड़ना देते समय नहीं रोका ( और फलस्वरुप ) वह यमलोक चला गया । ( यदि वे पहलेसे उसे रोक देते तो बेचारा क्यों मरता ? ) ॥२॥
संसार जानता है कि रावण शिवजीका भक्त था और उसने कई बार अपने सिर काट - काटकर शिवजीको अर्पित किये थे , किन्तु जब वह श्रीरघुनाथजीके साथ वैर करने लगा तब आपने उसे स्वप्नमें भी न रोका ( यह जानते थे कि श्रीरामजीके साथ वैर करनेसे यह मारा जायगा ) ॥३॥
जब ब्रह्माजी और शिवजीका यह हाल है तब ) और देवताओंकी तो बात ही क्या कही जाय ? वे तो स्वार्थके मित्र हैं ही । उनमें से किसीने भी कभी भयभीत शरणागतकी रक्षा नहीं की ॥४॥
सेवा करनेसे कौन धन नहीं देता है ? ( सभी देते हैं । ) यह तो दुनियाकी चाल ही है । किन्तु हे तुलसीदास ! दीनोंपर तो एक श्रीरघुनाथजीका ही स्नेह है । ( वे बिना ही सेवा किये केवल शरण होते ही अपना लेते हैं , देवताओंकी भाँति सर्वांगपूर्ण अनुष्ठानकी अपेक्षा नहीं करते ) ॥५॥