हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|पुस्तक|विनय पत्रिका|
विनयावली १०४

विनय पत्रिका - विनयावली १०४

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


जाके प्रिय न राम - बैदेही ।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम , जद्यपि परम सनेही ॥१॥

सो छाँड़िये

तज्यो पिता प्रहलाद , बिभीषन बंधु , भरत महतारी ।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज - बनितन्हि , भये मुद - मंगलकारी ॥२॥

नाते नेह रामके मनियत सुहद सुसेब्य जहाँ लौं ।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै , बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥३॥

तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो ।

जासों होय सनेह राम - पद , एतो मतो हमारो ॥४॥

भावार्थः - जिसे श्रीराम - जानकीजी प्यारे नहीं , उसे करोड़ों शत्रुओंके समान छोड़ देना चाहिये , चाहे वह अपना अत्यन्त ही प्यारा क्यों न हो ॥१॥

( उदाहरणके लिये देखिये ) प्रह्लादने अपने पिता ( हिरण्यकशिपु ) - को , विभीषणने अपने भाई ( रावण ) - को , भरतजीने अपनी माता ( कैकेयी ) - को , राजा बलिने अपने गुरु ( शुक्राचार्य ) - को और व्रज - गोपियोंने अपने - अपने पतियोंको ( भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर ) त्याग दिया , परन्तु ये सभी आनन्द और कल्याण करनेवाले हुए ॥२॥

जितने सुहद और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं , वे सब श्रीरघुनाथजीके ही सम्बन्ध और प्रेमसे माने जाते हैं , बस , अब अधिक क्या कहूँ । जिस अंजनके लगानेसे आँखे ही फूट जायँ , वह अंजन ही किस कामका ? ॥३॥

हे तुलसीदास ! जिसके कारण ( जिसके संग या उपदेशसे ) श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम हो , वही सब प्रकारसे अपना परम हितकारी , पूजनीय और प्राणोंसे भी अधिक प्यारा है । हमारा तो यही मत है ॥४॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 11, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP