अबलौं नसानी, अब न नसैहौं ।
राम - कृपा भव - निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥१॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं ।
स्यामरुप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥२॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं ।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति - पद - कमल बसैहौं ॥३॥
भावार्थः-- अबतक तो ( यह आयु व्यर्थ ही ) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा । श्रीरामकी कृपासे संसाररुपी रात्रि बीत गयी हैं, ( मैं संसारकी माया - रात्रिसे जग गया हूँ ) अब जागनेपर फिर ( मायाका ) बिछौना नहीं बिछाऊँगा ( अब फिर मायाके फंदेमें नहीं फँसूँगा ) ॥१॥
मुझे रामनामरुपी सुन्दर चिन्तामणि मिल गयी है । उसे हदयरुपी हाथसे कभी नहीं गिरने दूँगा । अथवा हदयसे रामनामका स्मरण करता रहूँगा और हाथसे रामनामकी माला जपा करुँगा । श्रीरघुनाथजीका जो पवित्र श्यामसुन्दर रुप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरुपी सोनेको कसूँगा । अर्थात् यह देखूँगा कि श्रीरामके ध्यानमें मेरा मन सदा - सर्वदा लगता है कि नहीं ॥२॥
जबतक मैं इन्द्रियोंके वशमें था, तबतक उन्होंने ( मुझे मनमाना नाच नचाकर ) मेरी बड़ी हँसी उड़ाई, परन्तु अब स्वतन्त्र होनेपर यानी मन - इन्द्रियोंको जीत लेनेपर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा । अब तो अपने मनरुपी भ्रमरको प्रण करके श्रीरामजीके चरण - कमलोंमें लगा दूँगा । अर्थात् श्रीरामजी चरणोंको छोड़कर दूसरी जगह मनको जाने ही नहीं दूँगा ॥३॥