माधव ! अब न द्रवहु केहि लेखे ।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥१॥
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी ।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरमाजी ॥२॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै ।
बहुत नात रघुनाथ ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥३॥
जनक - जननि, गुरु - बंधु, सुहद - पति, सब प्रकार हितकारी ।
द्वैतरुप तम - कूम परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥४॥
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी ।
तुलसिदास प्रभु ! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥५॥
भावार्थः-- हे माधव ! अब तुम किस कारण कृपा नहीं करते ? तुम्हारा प्रण तो शरणागतका पालन करना है और मेरा प्रण तुम्हारे चरणारविन्दोंको देख - देखकर ही जीना है । भाव यह कि जब मैं तुम्हारे चरण देखे बिना जीवन धारण ही नहीं कर सकता तब तुम प्रणतपाल होकर भी मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ॥१॥
जबतक मैं दीन और तुम दयालु, मैं सेवक और तुम स्वामी नहीं बने थे, तबतक तो मैंने जो दुःख सहे सो मैंने तुमसे नहीं कहे, यद्यपि तुम अन्तर्यामीरुपसे सब जानते थे ॥२॥
किन्तु अब तो मेरा - तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है । तुम दानी हो और मैं कंगाल हूँ, तुम पतितपावन हो और मैं पतित हूँ, वेद इस बातको गा रहे हैं । हे रघुनाथजी ! इस प्रकार मेरे - तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला, तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो ? ॥३॥
मेरे पिता, माता, गुरु, भाई, मित्र, स्वामी और हर तरहसे हितू तुम्हीं हो । अतएव कुछ ऐसा उपाय सोचो, जिससे मैं द्वैतरुपी अँधेरे कुएँमें न गिरुँ, अर्थात् सर्वत्र केवल एक तुम्हें ही देखकर परमानन्दमें मग्न रहूँ ॥४॥
हे कमलनयन ! सुनो, तुम्हारी अपार करुणा भवसागरके भारी भयसे ( आवागमनसे ) छुड़ा देनेवाली है । हे नाथ ! तुलसीदासका अज्ञान ( रुपी अन्धकार ) बिना तुम्हारे ज्ञानरुप प्रकाशके, बिना तुम्हारे दर्शनके, किसी प्रकार भी नहीं टल सकता ( अतएव इसको तुम ही दूर करो ) ॥५॥