जो मन लागै रामचरन अस ।
देह - गेह - सुत - बित - कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥१॥
द्वंद्वरहित , गतमान , ग्यानरत , बिषय - बिरत खटाइ नाना कस ।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न , कहु , क्यों न होंहि बस ॥२॥
सर्वभूत - हित , निर्ब्यलीक चित , भगति - प्रेम दृढ़ नेम , एकरस ।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस , जेहि हतो सीसदस ॥३॥
भावार्थः - जो यह मन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें वैसे ही लग जाय , जैसे कि यह बिना ही किसी प्रयत्नके स्वभावसे ही शरीर , घर , पुत्र , धन और स्त्रीमें मग्न हो जाता है ॥१॥
तो वह द्वन्द्वों ( सुख - दुःख आदि ) - से रहित हो जाय , उसका अभिमान दूर हो जाय , वह ज्ञानमें तल्लीन हो जाय और विषयोंसे वैसे ही विरक्त हो जाय , जैसे कि पीतल या ताँबा - राँगा मिली हुई धातुके बर्तनमें रखी हुई नाना प्रकारकी खटाइयोंस्से उनके कड़वी हो जानेके कारण ( मन हट जाता है ) । ( ऐसे अधिकारी भक्तपर ) आनन्दघन चतुरशिरोमणि कोसलनाथ भगवान श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्न होकर क्यों न उसके अधीन हो जायँ ? ॥२॥
( जो जीव भगवच्चरणारविन्दोंमें इस प्रकार प्रेम करेगा वह महापुरुष ही ) सब प्राणियोंके हितमें संलग्न , निर्विकार चित्तवाला , एकरस भक्तिप्रेम और भगवदीय नियमोंमें दृढ़ होता है ; परन्तु हे तुलसीदास ! यह दशा तभी प्राप्त होती है जब रावणके मारनेवाले स्वामी ( श्रीरामजी ) प्रसन्न होकर कृपा करते हैं ॥३॥