श्रीहरि - गुरु - पद - कमल भजहु मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख - निधान भगवान् ॥१॥
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम - मिलन अति दूरि ।
जद्यपि निकट हदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥२॥
दुइज द्वैत - मति छाड़ि चरहि महि - मंडल धीर ।
बिगत मोह - माया - मद हदय बसत रघुबीर ॥३॥
तीज त्रिगन - पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद ।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥४॥
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि - मन - चित - अहँकार ।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥५॥
पाँचइ पाँच परस , रस , सब्द , गंध अरु रुप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये , बहुरि परब भव - कूप ॥६॥
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता - पित लागि ।
रघुपति - कृपा - बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि ॥७॥
सातैं सप्तधातु - निरमित तनु करिय बिचार ।
तेहि तनु केर एक फल , कीजै पर - उपकार ॥८॥
आठइँ आठ प्रकृति - पर निरबिकार श्रीराम ।
केहि प्रकार पाइय हरि , हदय बसहिं बहु काम ॥९॥
नवमी नवद्वार - पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुख लीन्ह ॥१०॥
दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि ।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि ॥११॥
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥१२॥
द्वादसि दान देहु अस , अभय होइ त्रैलोक ।
परहित - निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥१३॥
तेरसि तीन अवस्था तजहु , भजहु भगवंत ।
मन - क्रम - बचन - अगोचर , ब्यापक , ब्याप्य , अनंत ॥१४॥
चौदसि चौदह भुवन अचर - चर - रुप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग - जाल ॥१५॥
पूनों प्रेम - भगति - रस हरि - रस जानहिं दास ।
सम , सीतल , गत - मान , ग्यानरत , बिषय - उदास ॥१६॥
त्रिबिध सूल होलिय जरै , खेलिय अब फागु ।
जो जिय चहसि परमसुख , तौ यहि मारग लागु ॥१७॥
श्रुति - पुरान - बुध - संमत चाँचरि चरित मुरारि ।
करि बिचार भव तरिय , परिय न कबहुँ जमधारि ॥१८॥
संसय - समन , दमन दुख , सुखनिधान हरि एक ।
साधु - कृपा बिनु मिलहिं न , करिय उपाय अनेक ॥१९॥
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥२०॥
भावार्थः - हे मन ! तू अभिमान छोड़कर भगवत रुपी श्रीगुरुके चरणारविन्दोंका भजन कर । जिनकी सेवा करनेसे आनन्दघन भगवन श्रीहरिकी प्राप्ति हो जाती है ॥१॥
जैसे प्रतिपदा ( पक्षमें सबसे पहला दिन है ) उसी प्रकार ( सर्व साधनोंमें ) प्रथम प्रेम है । प्रेमके बिना श्रीरामजीका मिलना बहुत दूरकी बात है । यद्यपि वे बहुत ही निकट , सबके हदयमें ही पूर्णरुपसे निवास करते हैं ॥२॥
धीर भावसे ( अचंचल चित्तसे ) द्वितीयाके समान दूसरा साधन यह है कि द्वैत - बुद्धि ( ईश्वर और जीवमें भेद - बुद्धि ) छोड़कर ( समदृष्टिसे ) समस्त पृथ्वी - मण्डलमें ( निश्चिन्त होकर ) विचरण करना चाहिये । मोह , माया और घमंडसे रहित हदयमें सदा श्रीरघुनाथजी निवास करते हैं ॥३॥
तृतीयाके समान तीसरा उपाय यह है कि परम पुरुष , लक्ष्मीकान्त श्रीमुकुन्द भगवान तीनों गुणोंसे परे हैं । अतएव ( सत्त्व , रज और तम ) त्रिगुणमयी प्रकृतिका त्याग कर देना चाहिये । ऐसा किये बिना परमानन्दकी प्राप्ति दुर्लभ है । ( जबतक पुरुष प्रकृतिमें स्थित है तभीतक वह जीव है और तभीतक सुख - दुःखका भोक्ता है । इस प्रकृतिमेमसे निकलकर स्व - स्थ - परमात्मारुपी स्व - रुपमें स्थित होनेसे ही मोक्षरुप परमानन्द मिलता है ) ॥४॥
चतुर्थीके समान ( भगवत - प्राप्तिका ) चौथा साधन यह है कि बुद्धि , मन , चित्त और अहंकार - इनके समुदायरुप ' अन्तः करण ' का त्याग कर देना चाहिये ( जबतक शरीर है तबतक अन्तः करण तो रहेगा ही , इसके त्यागका अर्थ यही है कि इसके साथ जो तादात्म्य हो रहा है उसे त्याग कर इसका द्रष्टा बन जाय । अथवा इसे भगवानके अर्पण करके इसके द्वारा केवल भगवत - सम्बन्धी कार्य ही करे ) ऐसा करनेसे निर्मल विवेकका उदय होगा , तब अपने आत्मस्वरुपरुपी उदार आनन्दघन परम पदकी प्राप्ति होगी ॥५॥
पंचमीके अनुसार पाँचवाँ साधन यह है कि स्पर्श , रस , शब्द , गन्ध और रुप - इन पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके कहनेमें अर्थात् इनके अधीन होकर न चलना चाहिये , क्योंकि इनके वश होनेसे जीवको संसाररुपी अँधेरे - गहरे कुएँमें गिरना पड़ेगा , ( जन्म मृत्युके चक्रमें पड़ना होगा ) ॥६॥
षष्ठीके समान छठा उपाय यह है कि श्रीजानकीनाथ श्रीरामजीकी प्राप्तिके लिये काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद और मात्सर्य - इन छओं शत्रुओंको जीत लेना चाहिये । श्रीरामके कृपारुपी जल बिना लोभरुपी अग्नि नहीं नहीं बुझती ( भगवत्कृपा जीवपर सदा है ही , अतः उस कृपाका अनुभव कर इन लोभादि शत्रुओंको मारना चाहिये ) ॥७॥
सप्तमीके समान सातवाँ साधन यह है कि सात धातुओं ( रस , रक्त , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा और शुक्र ) - से बने हुए इस ( अपवित्र , क्षणभंगुर परन्तु दुर्लभ मनुष्य ) शरीरपर विचार करना चाहिये । इस शरीरका केवल एक यही फल है कि इससे परोपकार ही किया जाय ॥८॥
अष्टमीके समान आठवाँ उपाय यह है , कि निर्विकारस्वरुप श्रीरामचन्द्रजी अष्टधा जड़ ( अपरा ) प्रकृति ( पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि और अहंकार ) - से परे हैं । अतएव जबतक हदयमें नाना प्रकारकी कामनाएँ बनी हुई हैं तबतक वे कैसे मिल सकते हैं ? ॥९॥
नवमीके समान नवाँ साधन यह है कि जिसने इस नौ दरवाजेकी नगरी अर्थात् नौ छेदवाले शरीरमें रहकर अपने आत्माका कल्याण नहीं किया , वह अनेक योनियोंमें भटकता हुआ नाना प्रकारके दारुण दुःखोंको प्राप्त होगा ( इसलिये आत्माके कल्याणके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ) ॥१०॥
दशमीके समान दसवाँ साधन यह है कि जिसने दसों इन्द्रियोंका संयम करना नहीं जाना , इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया , उसके सारे साधन निष्फल हो जाते हैं और उस इन्द्रियोंके दास , असंयमी मनुष्यको भगवानकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥११॥
एकादशीके समान ग्यारहवाँ साधन यह है कि मनको वशमें करके एक श्रीभगवानकी ही सेवा करनी चाहिये । इसीसे ( परमार्थरुपी एकादशी ) व्रतका जन्म - मरणके नाशरुप ( परम ) फल मिलता है । अर्थात् वह भगवानको प्राप्त हो जाता है ॥१२॥
द्वादशीके दिन दान दिया जाता है , अतः बारहवाँ साधन यह है कि ऐसा ( भगवत - प्रीत्यर्थ निष्काम बुद्धिसे ) दान देना चाहिये जिससे तीनों लोकोंसे भय न रहे ( भगवत्प्राप्ति हो जाय ) उस द्वादशीरुपी बारहवें साधनका पारण यही है कि सदा परोपकारमें लगे रहना चाहिये । इस दान और पारणसे ) फिर शोक नहीं व्यापता ॥१३॥
त्रयोदशीके समान तेरहवाँ साधन यह है कि जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओंको त्याग कर भगवानका भजन करना चाहिये ( भाव यह कि नित्य - निरन्तर , सोते - जागते , श्रीभगवद - भजन ही करना चाहिये ) । भगवान , मन , कर्म और वाणीसे जाननेमें नहीं आते , क्योंकि ( बर्फमें जलकी भाँति ) वे ही सबमें व्याप्त हैं और ( स्वप्नके दृश्योंकी भाँति ) स्वयं ही व्याप्य हो रहे हैं तथा असीम , अनन्त हैं ( उनको तो वही जान सकता है जिसको कृपापूर्वक वे जनाते हैं , उनकी कृपाका अनुभव नित्य - निरन्तर होनेवाले भजनसे होता है , अतः तीनों अवस्थाओंमें भजन ही करना चाहिये ) ॥१४॥
चतुर्दशीके समान गो - पाल ( इन्द्रियोंके नियन्ता ) भगवान चराचररुपसे चौदहो भुवनोंमें रम हे हैं । परन्तु जबतक , जीवकी भेद - बुद्धि दूर नहीं होती तबतक श्रीरघुनाथजी संसाररुपी जालको नहीं काटते , जीवको जन्म - मरणसे नहीं छुड़ाते ( संसारबन्धनसे छूटना हो तो अभेद - बुद्धिसे भगवानको भजना चाहिये ) ॥१५॥
पूर्णमासीके समान ( भगवानकी प्राप्तिका ) पंद्रहवाँ साधन , जो सर्वोत्कृष्ट और पूर्ण हैं , यह है कि प्रेम - भक्तिके रसमें सराबोर होकर भक्तको श्रीहरिका रस भगवानका परम रहस्यमय तत्त्व जानना चाहिये । इसीसे वह सर्वत्र समदर्शी शान्त , अहंकाररहित , ज्ञानस्वरुप और विषयोंसे उदासीन हो सकता है ॥१६॥
( यहाँ गोसाईंजीने फाल्गुन - मासकी पूर्णमासीका वर्णन किया है । यह पूर्णमासी और महीनोंकी पूर्णमासीसे कहीं अधिक है , इस आनन्दमयी होलीकी फाल्गुनी पूर्णिमाके दिन ) दैहिक , दैविक , भौतिक - इन तीनों तापोंकी होली जलाकर भगवानके साथ ( प्रेमकी ) खूब फाग खेलनी चाहिये ( यही परम आनन्दकी अवस्था है ) । यदि तू इस परमानन्दकी इच्छा करता है तो इसी मार पर चल ( इन्हीं साधनोंमें लग जा ) ॥१७॥
वेद , पुराण और विद्वानोंका यही एक मत है कि भगवानकी लीलाओंका गान ही होलीके गीत हैं । ( खूब हरिकीर्तन करना चाहिये ) । इन सब साधनोंपर विचार करके संसार - सागरसे तर जाना चाहिये । फिर कबी ( भूलकर भी ) यमलोकमें ले जानेवाली विषयोंकी धारामें नहीं पड़ना चाहिये ॥१८॥
सारे सन्देहोंके नाश करनेवाले , दुःखोंके दूर करनेवालोए और सुखके निधान केवल एक श्रीहरि ही हैं । चाहे जितने ही उपाय कर्लो , संतोंकी कृपाके बिना वे नहीं मिल सकते ( अतः संत - कृपा ही सर्व साधनोंमें प्रधान हैं ) ॥१९॥
संसाररुपी समुद्रसे तरनेके लिये संतोंके पवित्र चरण ही नौका हैं । हे तुलसीदास ! ( इस नौकापर चढ़कर अर्थात् संतोंके चरणोंकी सेवा करनेसे ) दुःखोंके नाश करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी बिना ही परिश्रमके मिल जायँगे ॥२०॥