तन सुचि , मन रुचि , मुख कहौं ' जन हौं सिय - पीको ' ।
केहि अभाग जान्यो नहीं , जो न होइ नाथ सों नातो - नेह न नीको ॥१॥
जल चाहत पावक लहौं , बिष होत अमीको ।
कलि - कुचाल संतानि कही सोइ सही , मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥२॥
जानि अंध अंजन कहै बन - बाघिनी - घीको ।
सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब , तब बुधि बल हरै हीको ॥३॥
प्रभु सों कहत सकुचात हौं , परौं जानि फिरि फीको ।
निकट बोलि , बलि , बरजिये , परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥४॥
भावार्थः - हे प्रभो ! मैं शरीरको पवित्र रखता हूँ , मनमें भी ( आपके प्रेमके लिये ) रुचि है और मुँहसे भी कहता हूँ कि मैं श्रीसीतानाथजीका सेवक हूँ ; किन्तु समझमें नहीं आता कि किस दुर्भाग्यके कारण नाथके साथ मेरा सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं होता ॥१॥
मैं पानी चाहता हूँ तो आग मिलती है और इसी प्रकार अमृतका जहर बन जाता है ( शान्तिके बदले अशान्तिकी जलन मिलती है और अमृतरुपी सत्कर्म , अभिमानरुपी विष पैदा कर देते हैं ) । संतोने कलियुगकी जो कुटिल चालें कही हैं वे सब ठीक हैं । मुझे सूर्य और रात्रिका कुछ भी ज्ञान नहीं है । ( अर्थात् मैं ज्ञान और अज्ञानको यथार्थरुपसे नहीं पहचान सकता ) ॥२॥
कलियुग मुझे अन्धा समझकर वनकी सिंहनीके घीका अंजन लगानेको कहता है , जब मैं यह विकार - भरा उपचार सुनकर उसपर विचार करता हूँ कि मुझे उसका घी कैसे मिले ? ( अज्ञानरुपी वनमें वासनारुपी सिंहनी रहती हैं । विषय उसका घी है वह तो समीप जाते ही खा जायगी । विषयोंमें फँसे हुए जीवको ज्ञानरुपी नेत्र कैसे मिल सकते हैं ? ) तब वह मेरे हदयके बुद्धि - बलको हर लेता है ॥३॥
( बुद्धि - बलके नष्ट हो जानेसे मुझे कलियुगका बताया हुआ उपचार यानी विषय - भोग अच्छा लगता है और मैं उसीमें लग जाता हूँ । इसी विघ्नके कारण मैं आपके साथ सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं कर पाता ) आपसे कुछ कहना है , पर उसे कहते संकोच हो रहा है कि कहीं मेरी बात फिर फीकी न पड़ जाय ( खाली न चली जाय ) इससे मैं आपकी बलैया लेता हूँ , ( बात यह है कि जरा अपने ) पास बुलाकर इसे ( कलियुगको ) रोक दीजिये , जिससे यह तुलसी - सरीखे जड जीवोंका खयाल छोड़ दे ॥४॥