राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे ।
घोर भव - नीर - निधि नाम निज नाव रे ॥१॥
एक ही साधन सब रिद्धि - सिद्धि साधि रे ।
ग्रसे कलि - रोग जोग - संजम - समाधि रे ॥२॥
भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे ।
राम - नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥३॥
जग नभ - बाटिका रही है फलि फूलि रे ।
धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥४॥
राम - नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे ।
तुलसी परोसो त्यागि माँगे कूर कौर रे ॥५॥
भावार्थः-- अरे पागल ! राम जप, राम जप, राम जप । इस भयानक संसारुपी समुद्रसे पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है । अर्थात् इस रामनामरुपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, क्योंकि यह मनुष्यके अधिकारमें हैं ॥१॥
इसी एक साधनके बलसे सब ऋद्धि - सिद्धियोंको साध ले, क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनोंको कलिकालरुपी रोगने ग्रस लिया है ॥२॥
भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनामसे ही काम पड़ेगा ॥३॥
यह जगत भ्रमसे आकाशमें फले - फूले दीखनेवाले बगीचेके समान सर्वथा मिथ्या है, धुएँके महलोंकी भाँति क्षण - क्षणमें दीखने और मिटनेवाले इन सांसरिक पदार्थोंको देखकर तू भूल मत ॥४॥
जो रामनामको छोड़कर दूसरेका भरोसा करता है, हे तुलसीदास ! वह उस मूर्खके समान है, जो सामने परोसे हुए भोजनको छोड़कर एक - एक कौरके लिये कुत्तेकी तरह घर - घर माँगता फिरता है ॥५॥