यहै जानि चरनन्हि चित लायो ।
नाहिन नाथ ! अकारनको हितु तुम समान पुरान - श्रुति गायो ॥१॥
जननि - जनक , सुत - दार , बंधुजन भये बहुत जहँ - जहँ हौं जायो ।
सब स्वारथहित प्रीति , कपट चित , काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥२॥
सुर - मुनि , मनुज - दनुज , अहि - किन्नर , मैं तनु धरि सिर काहि न नायो ।
जरत फिरत त्रयताप पापबस , काहु न हरि ! करि कृपा जुड़ायो ॥३॥
जतन अनेक किये सुख - कारन , हरिपद - बिमुख सदा दुख पायो ।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति - जाल जग छायो ॥४॥
मो कहँ नाथ ! बूझिये , यह गति सुख - निधान निज पति बिसरायो ।
अब तजि रोष करहु करुना हरि ! तुलसिदास सरनागत आयो ॥५॥
भावार्थः - यही जानकर मैंने ( सब ओरसे हटाकर ) आपके चरणोंमें चित्त लगाया है कि हे नाथ ! आपके समान , बिना ही कारण हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है , ऐसा वेद और पुराण गाते हैं ॥१॥
जहाँ - जहाँ ( जिस - जिस योनिमें ) मैंने जन्म लिया , वहाँ - वहाँ मेरे बहुत - से पिता - माता , पुत्र स्त्री और भाई - बन्धु हुए । परन्तु वे सबी स्वार्थ - साधनके लिये मुझसे प्रेम करते रहे , उनके मनमें छल - कपट रह । इसीलिये किसीने भी मुझे श्रीहरिका भजन नहीं सिखाया । ( सभी संसारमें फँसे रहनेकी शिक्षा देते रहे , भगवद्भजनका उपदेश नहीं दिय ) ॥२॥
शरीर धारण कर मैंने ( अपनी भलाई करनेके लिये ) देवता - मुनि , मनुष्य - राक्षस , सर्प - किन्नर आदि किसको सिर नहीं नवाया ? ( सभीके चरणोंमें सिर रख - रखकर खुशामदें की ) किन्तु हे हरे ! पापके फलस्वरुप तीनों तापोंसे जलते फिरते हुए मुझको किसीने दयाकर शीतल नहीं किया । ( मोक्ष - प्रदान कर संसारका ताप कोई नहीं मिटा सके ) ॥३॥
मैंने सुखके लिये बहुत - से साधन किये , पर भगवच्चरणोंसे विमुख होनेके कारण सदा दुःख ही पाया । संसारमें विपत्तियोंका जाल बिछा हुआ देखकर अब मैं ( समस्त साधनोंसे ) ऐसा थक गया हूँ , जैसे बिना पानीके नौका थक जाती है ॥४॥
हे नाथ ! समझ लीजिये , मेरी यह दश इसलिये हुई है कि मैंने अपने सुख - निधान स्वामीको भुला दिया । हे हरे ! अब मेरे दोषोंका खयाल छोड़कर इस शरणागत तुलसीदासपर दया कीजिये ॥५॥