राग धनाश्री
जयति जय शत्रु - करि - केसरी शत्रुहन, शत्रुतम - तुहिनहर किरणकेतू ।
देव - महिदेव - महि - धेनु - सेवक सुजन - सिद्ध - मुनि - सकल - कल्याण - हेतू ॥१॥
जयति सर्वांगसुंदर सुमित्रा - सुवन, भुवन - विख्यात - भरतानुगामी ।
वर्मचर्मासि - धनु - बाण - तूणीर - धर शत्रु - संकट - समय यत्प्रणामी ॥२॥
जयति लवणाम्बुनिधि - कुंभसंभव महा - दनुज - दुर्जनदवन, दुरितहारी ।
लक्ष्मणानुज, भरत - राम - सीता - चरण - रेणु - भूषित - भाल - तिलकधारी ॥३॥
जयति श्रुतिकीर्ति - वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ नमत नर्मद भुक्तिमुक्तिदाता ।
दासतुलसी चरण - शरण सीदत विभो, पाहि दीनार्त्त - संताप - हाता ॥४॥
भावार्थः-- शत्रुरुपी हाथियोंके नाश करनेको सिंहरुप श्रीशत्रुघ्नजीकी जय हो, जय हो, जो शत्रुरुपी अन्धकार और कुहरेके हरनेके लिये साक्षात् सूर्य हैं और देवता, ब्राह्मण, पृथ्वी और गौके सेवक, सज्जन, सिद्ध और मुनियोंका सब प्रकार कल्याण करनेवाले हैं ॥१॥
जिनके सारे अंग सुन्दर हैं, जो सुमित्राजीके पुत्र और विश्व - विख्यात भरतजीकी आज्ञामें चलनेवाले हैं; जो कवच, ढाल, तलवार, धनुष, बाण और तरकस धारण किये हैं और शत्रुओंद्वारा दिये हुए संकटोंका नाश करनेवाले हैं; उन शत्रुघ्नजीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥२॥
लवणासुररुपी समुद्रको पान करनेके लिये अगस्त्यके समान, बड़े - बड़े दुष्ट दानवोंका संहार करनेवाले और पापोंका नाश करनेवाले शत्रुघ्नजीकी जय हो । ये लक्ष्मणजीके छोटे भाई हैं और भरतजी, श्रीरामजी तथा सीताजीके चरणकमलोंकी रजका मस्तकपर सुन्दर तिलक धारण करनेवाले हैं ॥३॥
श्रुतिकीर्तिजीके पति हैं, दुष्टोंको दुर्लभ और सेवकोंको सुलभ हैं, प्रणाम करते ही सुख, भोग और मुक्ति देनेवाले हैं, ऐसे शत्रुघ्नजीकी जय हो । हे प्रभो ! यह तुलसीदास तुम्हारे चरणोंकी शरण आकर भी दुःख भोग रहा है, हे दीन और आर्तोंके सन्ताप हरनेवाले ! उसकी ( तुलसीदासकी ) रक्षा करो ॥४॥