मैं जानी, हरिपद - रति नाहीं । सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥१॥
जे रघुबीर चरन अनुरागे । तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥२॥
काम - भुजंग डसत जब जाही । बिषय - नींब कटु लगत न ताही ॥३॥
असमंजस अस हदय बिचारी । बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥४॥
जब कब राम - कृपा दुख जाई । तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥५॥
भावार्थः-- मैंने जान लिया है कि श्रीहरिके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं हैं; क्योंकि सपनेमें भी मेरे मनमें वैराग्य नहीं होता ( संसारके भोगोंमें वैराग्य होना ही तो भगवच्चरणोंमें प्रेम होनेकी कसौटी है ) ॥१॥
जिनका श्रीरामके चरणोंमें प्रेम हैं, उन्होंने सारे विषय - भोगोंको रोगकी तरह छोड़ दिया है ॥२॥
जब जिसे कामरुपी साँप डस लेता है, तभी उसे विषयरुपी नीम कड़वी नहीं लगती ॥३॥
ऐसा विचारकर हदयमें बड़ा असमंजस हो रहा है कि क्या करुँ ? इसी विचारसे मेरे मनमें नित नया सोच बढ़ता जा रहा है ॥४॥
हे तुलसीदास ! और कोई उपाय नहीं हैं; जब कभी यह दुःख दूर होगा तो बस श्रीराम - कृपासे ही होगा ॥५॥