हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो ।
ठौर ठौर साहबी होत हैं, ख्याल काल कलि केरो ॥१॥
काल - करम - इंद्रिय - बिषय गाहकगन घेरो ।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥२॥
बंदि - छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो ।
मैं कह्यो, तब छल - प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥३॥
नाम - ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो ।
अब गरीब जन पोषिय पाइबो न हेरो ॥४॥
बक
जेहि कौतुक खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो ।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु ! ' तुलसी है मेरो ' ॥५॥
भावार्थः- हे रामजी ! मैं सब प्रकार आपका दास बनना चाहता हूँ, पर यहाँ तो जगह - जगह साहबी हो रही है । भाव यह कि मन और इन्द्रियाँ सभी मेरे मालिक बन बैठे हैं । यह सब कलिकालके खेल हैं ॥१॥
काल, कर्म और इन्द्रियरुपी ग्राहकोंने मुझे घेर रखा है । जब मै उनके हाथ बिकना कबूल नहीं करता, तब वे मुझे बाँधकर मुझपर कड़ा दाम चढ़ाते हैं, अर्थात जैसे - तैसे लालच दिखाकर अपने वशमें करना चाहते हैं ॥२॥
आपका नाम बन्धनसे छुड़ानेवाला है और आपका बाना भी बड़ा है; जब मैंने उन ( ग्राहकों ) - से यह कहा कि भाई ! मैं तो रघुनाथजीके हाथ बिक चुका हूँ, तब वे कपट - प्रेम दिखाकर मुझझे मेरे हदयमें बसनेके लिये स्थान माँगने लगे ( यदि उन्हें स्थान दिये देता हूँ, तो अभी तो वे दीनता दिखा रहे हैं, पर जगह मिल जानेपर धीरे - धीरे उसपर अपना अधिकार जमा लेंगे ) ॥३॥
अबतक मैं आपके नामके सहारे बचा रहा, पर अब तो यह कलियिग मुजे जेर किये है । अतएव, अब इस गरीब गुलामका पालन कीजिये, नहीं तो फिर खोजनेसे भी इसका पता न लगेगा ॥४॥
हे नाथ ! आपने जिस लीलासे पक्षी ( उल्लू ) का और कुत्तेका फैसला कर दिया था, उसी लीलासे ( इस कलियुगसे ) यह भी कह दीजिये कि ' तुलसी मेरा है । ' ( इतना कह देनेसे फिर कलियुगका इसपर कुछ भी वश न चलेगा ) ॥५॥