सिव ! सिव ! होइ प्रसन्न करु दाया ।
करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया ॥१॥
जलज - नयन, गुन - अयन, मयन - रिपु, महिमा जान न कोई ।
बिनु तव कृपा राम - पद - पंकज, सपनेहुँ भगति न होई ॥२॥
रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं ।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं ॥३॥
अहिभूषन, दूषन - रिपु - सेवक, देव - देव, त्रिपुरारी ।
मोह - निहार - दिवाकर संकर, सरन सोक - भयहारी ॥४॥
गिरिजा - मन - मानस - मराल, कासीस, मसान - निवासी ।
तुलसिदास हरि - चरन - कमल - बर, देहु भगति अबिनासी ॥५॥
भावार्थः-- हे कल्याणरुप शिवजी ! प्रसन्न होकर दया कीजिये । आप करुणामय हैं, आपकी कीर्ति सब ओर फैली हुई है, मैं बलिहारी जाता हूँ, कृपापूर्वक अपनी माया हर लीजिये ॥१॥
आपके नेत्र कमलके समान हैं, आप सर्वगुणसम्पन्न हैं, कामदेवके शत्रु हैं । आपकी कृपा बिना न तो कोई आपकी महिमा जान सकता है और न श्रीरामके चरणकमलोंमें स्वप्नमें भी उसकी भक्ती होती है ॥२॥
ऋषि, सिद्ध, मुनि, मनुष्य, दैत्य, देवता और जगतमें जितने जीव हैं, वे सब आपके चरणोंसे विमुख रहते हुए करोड़ों कल्प बीत जानेपर भी संसार - सागरका पार नहीं पा सकते ॥३॥
सर्प आपके भूषण हैं, दूषणको मारनेवाले ( और सारे दोषोंको हरनेवाले ) भगवान् श्रीरामके आप सेवक हैं, आप देवाधिदेव हैं, त्रिपुरासुरका संहार करनेवाले हैं । हे शंकर ! आप मोहरुपी कोहरेका नाश करनेके लिये साक्षात् सूर्य हैं, शरणागत जीवोंका शोक और भय हरण करनेवाले हैं ॥४॥
हे काशीपते ! हे श्मशाननिवासी !! हे पार्वतीके मनरुपी मानसरोवरमें विहार करनेवाले राजहंस !!! तुलसीदासको श्रीहरिके श्रेष्ठ चरणकमलोंमें अनपायिनी भक्तिका वरदान दीजिये ॥५॥