सोइ सुकृती , सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे ।
गनिका , गीध , बधिक हरिपुर गये , लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥१॥
कबहुँ न डग्यो निगम - मगतें पग , नृग जग जानि जिते दुख पाये ।
गजधौं कौन दिछित , जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये ॥२॥
सुर - मुनि - बिप्र बिहाय बड़े कुल , गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो ।
बायों दियो बिभव कुरुपतिको , भोजन जाइ बिदुर - घर कीन्हो ॥३॥
मानत भलहि भलो भगतनितें , कछुक रीति पारथहि जनाई ।
तुलसी सहज सनेह राम बस , और सबै जलकी चिकनाई ॥४॥
भावार्थः - हे रामजी ! जिसपर आप प्रसन्न हो गये , वही सच्चा पुण्यात्मा है और वही पवित्र है । वेश्या ( पिंगला ), गीध ( जटायु ) और बहेलिया ( वाल्मीकि ) जो परम धाम वैकुण्ठको चले गये , उन्होंने कब प्रयागमें जाकर तप किया और कण्डोंकी आगमें जलकर मरे ? ॥१॥
राजा नृग कभी वेदोक्त मार्गसे नहीं डिगा था , किन्तु संसार जानता है , उसने कितने दुःख भोगे ( गिरगिटकी योनि पाकर हजारों वर्ष कुएँमें पड़ा सड़ता रहा ! ) और वह हाथी कहाँका दिक्षित था , जिसके एक बार याद करते ही आप अपने वाहन गरुड़को छोड़कर सुदर्शनचक्र लिये दौड़े आये ? ॥२॥
देवता , मुनि और ब्राह्मणोंके ऊँचे कुलको छोड़कर आपने गोकुलमें एक गोप ( नन्दजी ) - के घरमें जन्म लिया । कौरव - पति राजा दुर्योधनके ऐश्वर्यकी ठुकराकर आपने ( दीन ) विदुरके घर जाकर ( साग - भाजीका ) भोजन किया ॥३॥
भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंके साथ बहुत भला मानते हैं । इस अनन्य प्रेम भक्तिकी रीति कुछ - कुछ आपने अर्जुनको बतायी थी । हे तुलसीदास ! श्रीरामजी तो सरल स्वाबाविक विशुद्ध प्रेमके अधीन हैं , दुसरे जितने साधन हैं वे ऐसे हैं , जैसे पानीकी चिकनाई ! ( पानी पड़नेपर , थोड़ी देरके लिये शरीर चिकना - सा मालूम होता है , पर सूखनेपर फिर ज्यों - का - त्यों रुखा हो जाता है । इसी प्रकार दूसरे साधनोंसे कामनाकी पूर्ति होनेपर क्षणिक सुख तो मिलता है , परन्तु दुसरी कामना उत्पन्न होते ही मिट जाता है ) ॥४॥