भली भाँति पहिचाने - जाने साहिब जहाँ लौं जग ,
जूड़े होत थोरे , थोरे ही गरम ।
प्रीति न प्रवीन , नीतिहीन , रीतिके मलीन ,
मायाधीन सब किये कालहू करम ॥१॥
दानव - दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े ,
जीते लोकनाथ नाथ ! बलनि भरम ।
रीझि - रीझि दिये बर , खीझि - खीझि घाले घर ,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥२॥
सेवा - सावधान तू सुजान समरथ साँचो ,
सदगुन - धाम राम ! पावन परम ।
सुरुख , सुमुख , एकरस , एकरुप , तोहि
बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥३॥
तोसो नतपाल न कृपाल , न कँगाल मो - सो
दयामें बसत देव सकल धरम ।
राम कामतरु - छाँह चाहै रुचि मन माँह ,
तुलसी बिकल , बलि , कलि - कुधरम ॥४॥
भावार्थः - जगतमें जहाँतक मालिक हैं , उनको मैंने भलीभाँति समझ और पहचान लिया है । वे थोड़ेमें ही प्रसन्न हो जाते हैं और थोड़ेमें ही गरम हो उठते हैं । न तो वे प्रेमके निभानेमें ही चतुर हैं और न नीति ही जानते हैं । उनकी चालें सब बुरी हैं , क्योंकि काल , कर्म और मायाने उन्हें अपने अधीन कर रखा है ॥१॥
हे नाथ ! ( अपने ) बलके भ्रमसे बड़े - बड़े दैत्यदानव आदि महामूर्ख बनकर ( सबके ) सिरपर चढ़ गये थे और उन्होंनें लोकपालोको भी जीत लिया था । इन लोगोंको इनके मालिकोंने ( देवताओंने ) पहले तो ( इनके तपपर ) रीझ - रीझकर ( मनमाने ) वर दिये , पर पीछेसे नाराज हो - होकर इनके घरोंको स्वाहा करा दिया ! ( आपकी प्रार्थना करके ) अपने सेवकोंको बिगाड़ते समय किसीको भी शर्म न आयी ॥२॥
हे रामजी ! सावधान सेवकोंको तो आप ही भलीभाँति पहचानते हैं , क्योंकि आप ही सच्चे समर्थ , सदगुणोंके स्थान और परमपवित्र हैं । आप सबपर कृपा करनेवाले , प्रसन्न - मुख , सदा एकरस और एकरुप हैं । आपको घट - घटका भेद विशेषरुपसे मालूम है ॥३॥
हे कृपालो ! आपके समान शरणागत कंगालोंको पालनेवाला दूसरा कोई नहीं है और मुझ - सरीखा कोई कंगाल नहीं है । हे देव ! सारे धर्मोंका निवास दयामें ही है ( अतः मुझ दीनपर दया कर दीजिये ) । फिर हे नाथ ! आप तो कल्पवृक्ष हैं । इसी कल्पवृक्षकी छायामें रहना चाहता हूँ । बलिहारी ! यह तुलसी कलियुगके कुटिल धर्मोंसे बड़ा ही व्याकुल हो रहा है । ( कृपाकर इसे शीघ्र ही बचाइये ) ॥४॥