रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?
कुपथ , कुचाल , कुमति , कुमनोरथ , कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥१॥
जानत गरल अमिय बिमोहबस , अमिय गनत करि आगिहै ।
उलटी रीति - प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥२॥
आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम - प्रेम - पगि पागिहै ।
ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥३॥
तु यहि बिधि सुख - सयन सोइहै , जियकी जरनि भूरि भागिहै ।
राम - प्रसाद दासतुलसी उर राम - भगति - जोग जागिहै ॥४॥
भावार्थः - अरे मन ! क्या कभी तू श्रीरघुनाथजीसे भी लगेगा ? रे कुटिल ! तू कुमार्ग , बूरी चाल , दुर्बुद्धि , बुरी कामनाएँ और छल - कपट कब छोड़ेगा ? ॥१॥
तू बड़े भारी अज्ञानके वश होकर ( विषयरुपी ) विषको अमृत मान रहा है और ( भगवानके भजनरुपी ) अमृतको आगके समान ( दुः खदायी ) समझ रहा है ! अपनी इस उलटी रीति और विषयोंकी प्रीतिको त्याग कर तू श्रीरामजीके चरणोंमें कब प्रेम करेगा ? ॥२॥
कब तू रामनामके सुन्दर अक्षर और कोमल अर्थरुपी लड्डुओंको श्रीरघुनाथजीके प्रेमरुपी चाशनीमें पागेगा ? भाव यह कि क्या तू प्रेमपूरित हदयसे कभी अर्थसहित श्रीराम - नामका जप करेगा ? जो तू इस तरह अपने स्वामीके गुणोंको गा - गाकर उन्हें रिझा लेगा , तो तुझे मुँहमाँगा पदार्थ मिल जायगा ॥३॥
इस प्रकार करनेसे तू ( मोक्षकी ) सुख - सेजपर सदाके लिये सो जायगा और तेरे मनकी ( अविद्याजनित ) बड़ी भारी जलन ( आत्यन्तिक रुपसे ) भाग जायगी । हे तुलसीदास ! श्रीरामजीकी कृपासे तेरे हदयमें श्रीरामजीका प्रेमरुप भक्तियोग सिद्ध हो जायगा ॥४॥