राम सनेही सों तैं न सनेह कियो ।
अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥
दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको ।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि - मुरारिको ॥
यह भरतखंड, समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली ।
तेरी कुमति कायर ! कलप - बल्ली चहति है बिष फल फली ॥१॥
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अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ ।
है हितु सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥
स्वारथहि प्रिय, स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई ।
देखु खल, अहि - खेल परिहरि, सो प्रभुहि पहिचानई ॥
पितु - मात, गुरु, स्वामी, अपनपौ, तिय, तनय, सेवक, सखा ।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों, बिनु हेतु हित तैं नहिं लखा ॥२॥
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दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है ।
छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है ॥
किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै ।
जगदीश, जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ।
हरिहि हरिता, बिधिहि बिधिता, सिवहि सिवता जो दई ।
सोइ जानकी - पति मधुर मूरति, मोदमय मंगल मई ॥
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ठाकुर अतिहि बड़ो, सील, सरल, सुठि ।
ध्यान अगम सिवहूँ, भेंट्यो केवट उठि ॥
भरि अंक भेंट्यो सजल नचन, सनेह सिथिल सरीर सो ।
सुर, सिद्ध, मुनि, कबि कहत कोउ न प्रेमाप्रिय रघुबीर सो ॥
खग, सबरि, निसिचर, भालु, कपि किये आपु ते बंदित बड़े ।
तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥४॥
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स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै ।
सोच सकल मिटिहैं, राम भलो मन मानिहैं ॥
भलो मानिहैं रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै ।
ततकाल तुलसीदास जीवन - जनमको फल पाइहै ॥
जपि नाम करहि प्रनाम, कहि गुन - ग्राम, रामहिं धरि हिये ।
बिचरहि अवनि अवनीस - चरनसरोज मन - मधुकर किये ॥५॥
भावार्थः- अरे ! जिन्होंने तुझे देव - दुर्लभ मनुष्य - शरीर दिया, उन परम प्रेमी श्रीरामजीके साथ तूने प्रेम नहीं किया । उन्होंने ऐसे अच्छे कुलमें जन्म और सुन्दर शरीर दिया है, जो अर्थ, धर्म, काम और मोक्षका कारण है । जिसे पाकर ज्ञानी लोग भगवान् शिव अथवा कृष्णके परमपदको प्राप्त करते हैं । फिर यह भारतवर्ष देश, पास ही देव - नदी गंगाजी, कैसा सुन्दर स्थान है ! साथ ही सत्संग भी उत्तम है । इतनेपर भी अरे कायर ! तेरी कुबुद्धिके कारण इन सब साधनोंकी कल्पलता भी ( जन्ममरणरुपी ) विषैले फल फला चाहती है ! अर्थात् इतने सुन्दर साधनोंको पाकर भी तू अपने बुद्धिदोषसे इनका दुरुपयोग ही कर रहा है ॥१॥
अब भी समझ ले । मन लगाकर परमार्थकी बात सुन । वह बात कल्याण करनेवाली है और इस संसारमे भी उससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है । यदि तुझे स्वार्थ ही अच्छा लगता हैं, विचार कर, वह कौन है जिससे स्वार्थ प्राप्त होगा, जिसे वेद गाते हैं ( अर्थात् श्रीरामजी ही हैं ) । अरे दुष्ट ! देख, ( विषयरुपी ) साँपके साथ खेलना छोड़ दे, उस स्वामीको पहचान, जिस ( सबसें रमनेवाले आत्मरुपी राम ) के प्रेमके कारण ही पिता, गुरु, स्वामी, शरीर, पुत्र, सेवक, मित्र आदि सब प्रिय जान पड़ते हैं, उस अहैतुक हित करनेवाले परम सुहद प्रभुको तूने नहीं पहचाना ॥२॥
वह तेरा हितकारी प्रभु हरि दूर नहीं हैं, तेरे हदयमें ही है । छल छोड़कर उसका स्मरण करनेपर वह सदा कृपा किये ही रहता है । भाव यह है कि परमात्मा हदयमें तो अवश्य है किन्तु बीचमें कपटका परदा पड़ा है, इसीसे उसका साक्षात्कार नहीं होता । परदा हटा कि प्यारेका मुखकमल दीखा ! वह कृपा करके अपने भक्तोंपर कर - कमलोंकी छाया किये रहता है, स्वयं सदा उनकी रक्षा करता है । जो उसे भजता है, वह भी उसे भजता है । वह जगतका ईश्वर है, जीवका जीवन है । जो सबके लिये सब तरहके साज सजाता है, जिसने विष्णुको विष्णुत्व, ब्रह्माको ब्रह्मत्व और शिवको शिवत्व दिया, वह यही श्रीजानकी - नाथ रघुनाथजीकी मधुर आनन्दस्वरुपिणी मंगलमयी मूर्ति हैं ॥३॥
यद्यपि वह बहुत ही बड़ा स्वामी है, सभीका अधीश्वर है, तथापि वह महान् सुशील, सुन्दर और सरल है । अरे ! जिसका ध्यान शिवको भी दुर्लभ है उसने उठकर केवटको हदयसे लगा लिया ! हदयसे लगाकर मिलते ही उसकी आँखोंमें आँसू भर आये और प्रेमवश शरीर शिथिल - सा हो गया । देवता, सिद्ध, मुनि और कवि कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीके समान कोई भी प्रेमप्रिय नहीं है, उन्हें जितना प्रेम प्यारा लगता है उतना और किसीको नहीं लगता । उन्होंने पक्षी ( जटायु ) , शबरी, राक्षस ( विभीषण ), रीछ ( जाम्बवान् आदि ) और बंदरों ( हनुमानजी आदि ) को अपनेसे भी अधिक पूजनीय बना दिया । ( अब शीलकी ओर देखिये ) इतनेपर भी वे जब उन लोगोंद्वारा की हुई सेवा याद करते हैं, तब संकोचके मारे मन - ही - मन गड़े - से जाते हैं ॥४॥
प्रभु श्रीरामजीका जो शील - स्वभाव मैंने कहा है उसे जब तू हदयमें लावेगा, तब तेरी सारी चिन्ताएँ मिट जायँगी और प्रभु रामचन्द्रजी भी मनमें प्रसन्न होंगे । अरे श्रीरघुनाथजी तो तभी प्रसन्न हो जायँगे, जब तू हाथ जोड़कर मस्तक नवा देगा । तुलसीदास ! तू उसी क्षण जन्म और जीवनका फल पा जायगा, अर्थात् तुझे श्रीरामजी दर्शन देंगे । तू राम - नामका जप कर, रामको प्रणाम कर, उनके गुण - समूहोंका कीर्तन कर और हदयमें श्रीरामजीको विराजित कर तथा अपने मनको जगदीश श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें नित्य निवास करनेवाला भ्रमर बनाकर पृथ्वीपर निर्भय विचरण कर ॥५॥