राग टोड़ी
देव
दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥१॥
सुर, नर, मुनि, असुर, नाग साहिब तौ घनेरे ।
( पै ) तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥२॥
त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी ।
आदि - अंत - मध्य राम ! साहबी तिहारी ॥३॥
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो ।
सुनि सुभाव - सील - सुजसु जाचन जन आयो ॥४॥
पाहन - पसु, बिटप - बिहँग अपने करि लीन्हे ।
महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥५॥
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो ।
बारक कहिये कृपालु ! तुलसिदास मेरो ॥६॥
भावार्थः-- हे श्रीरामजी ! दीनोंपर दया करनेवाला और उन्हें ( परमसुख ) देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । मैं जिसको अपनी दीनता सुनाता हूँ उसीको दीन पाता हूँ । ( जो स्वयं दीन है वह दूसरेको क्या दे सकता है ? ) ॥१॥
देवता, मनुष्य, मुनि, राक्षस, नाग आदि मालिक तो बहुतेरे हैं, पर वहींतक हैं जबतक आपकी नजर तनिक भी टेढ़ी नहीं होती । आपकी नजर फिरते ही वे सब भी छोड़ देते हैं ॥२॥
तीनों लोकोंमें तीनों काल सर्वत्र यही प्रसिद्ध है और यही चारों वेद कह रहे हैं कि आदि, मध्य और अन्तमें, हे रामजी ! सदा आपकी ही एक - सी प्रभुता है ॥३॥
जिस भिखमंगेने आपसे माँग लिया, वह फिर कभी भिखारी नहीं कहलाया । ( वह तो परम नित्य सुखको प्राप्तकर सदाके लिये तृप्त और अकाम हो गया ) आपके इसी स्वभाव - शीलका सुन्दर यश सुनकर यह दास आपसे भीख माँगने आया ॥४॥
आपने पाषाण ( अहल्या ), पशु ( बंदर - भालू ), वृक्ष ( यमलार्जुन ) और पक्षी ( जटायु, काकभुशुण्डि ) तकको अपना लिया है । हे महाराज दशरथके पुत्र ! आपने नीच रंकोंको राजा बना दिया है ॥५॥
आप गरीबोंको निहाल करनेवाले हैं और मैं आपका गरीब हूँ । हे कृपालु ! ( इसी नाते ) एक बार यही कह दीजिये कि ' तुलसीदास मेरा है ' ॥६॥