तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत ।
सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥१॥
छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत ।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥२॥
बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत ।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥३॥
बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत ।
योंही जिय जानि, मानि सठ ! तू साँसति सहत ॥४॥
पायो केहि घृत बिचारु, हरिन - बारि महत ।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥५॥
भावार्थः- अरे जीव ! मैं तुझझे बार - बार हितकारी, प्रिय, पवित्र और सत्य वचन कहता हूँ, इन्हें सुनकर, मनमें विचारकर और समझकर भी तू सुगम और सुन्दर रास्ता क्यों नहीं पकड़ता ? अर्थात श्रीरामकी शरण क्यों नहीं हो जाता ? ॥१॥
छोटा - बड़ा, खोटा - खरा, जो जहाँ संसारमें रहता हैं, उनमें बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो ? ॥२॥
ब्रह्मासे लेकर छोटे - छोटें कीडेतक सुखसे सुखी होते हैं और दुःखसे जलते हैं, पशुपालक ग्वालेकी तरह परमात्मा जीवरुपी पशुओंको ( ज्ञानसे ) खोलता और उन्हें ( कर्मोंमें ) जोतता है ॥३॥
विषयोंके सुखोंको देख । वे तो सि के बोझेको कन्धेपर रखनेके समान हैं । अर्थात् विषय - सुखमें सुख है ही नहीं, इस तरह मनमें समझकर मान जा । अरे मूर्ख ! क्यों कष्ट सह रहा है ? ॥४॥
तनिक विचार तो कर, मृगतृष्णाके जलको मथकर किसने घी पाया है ? अर्थात् असत् संसारके काल्पनिक पदार्थोंमें सच्चा सुख कैसे मिल सकता है ? हे तुलसी ! तू तो उसी प्रभुकी शरणमें जा, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है ॥५॥